तुम यथार्थ की नगरी के बाशिंदे
तुम यथार्थ की नगरी के बाशिंदे
तुम यथार्थ की नगरी के बाशिंदे हो।
पर मैं रहता हूँ सपनों के ग्राम में।
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जो मेरा विश्वास तुम्हारी लाचारी।
मेरी एक कल्पना सौ सच पर भारी।
दुनियादारी तुम्हें मुबारक रमे रहो,
पर मैं तो रमता बस अपने राम में।
तुम यथार्थ की………………….
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हाँ तुमने ही खोजे हैं तट सागर के।
मैं तो साथ रहा हूँ घट के गागर के।
प्यास तुम्हारी चिरसंगी सागरजेता,
तुष्टि सहचरी मेरी आठौ याम में।
तुम यथार्थ की…………………..
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तुम जुटे रहे उलझे धागे सुलझाने में।
मैं मस्त नाचती तकली ताने-बाने में।
सुलझाते-सुलझाते तुम ही उलझ गये,
मैं नाँचू ओढ़ चुनरिया धरती धाम में।
तुम यथार्थ की……………………..