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Shravani Balasaheb Sul

Abstract

4  

Shravani Balasaheb Sul

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तन्हाई की आदत हो जाती हैं

तन्हाई की आदत हो जाती हैं

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तन्हाई की आदत हो जाती हैं पेड़ों की बेबाक जड़ों को

उन्हे पता हैं तन्हा सफर अपना

खुली हवा महज एक सपना

मुक्त कर अंकुर माटी से

खुद मगर बंदिशों में तड़पना 


तन्हाई की आदत हो जाती हैं साहिलो में कैद नदियों को

पर्वत से उद्देश्य लेकर बिछड़ना पड़ता हैं

अंजाना रस्ता पकड़ना पड़ता हैं

समंदर में मिलकर खारा होकर

अंत में मिठास को छोड़ना पड़ता हैं 


तन्हाई की आदत हो जाती हैं हर स्तब्ध एकटक सड़क को

हजारों सफर हररोज तो गुम जाने का भय हैं 

देह दंडित कर ख़ामोश बैठी यह अजय हैं 

जिम्मा उठाकर जहान की मंजिलों का

खुद तो किसी खरोच से टूट जाना तय हैं 


तन्हाई की आदत हो जाती हैं बहती लहरती पवन को

बिन धरा बिन गगन अकेले ही विहार हैं

यू ही बिन आशिये के हर दिन त्यौहार हैं 

जमी से चाहत भी शिकायत भी कुछ यू हैं 

संथ हवा सौगात तो तूफान का रूप प्रहार हैं।


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