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Baman Chandra Dixit

Abstract

4.5  

Baman Chandra Dixit

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तनहा इन आंसुओं को

तनहा इन आंसुओं को

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ये आंसू भी कितने अकेले हैं

रहे तो कैद , बहे तो तनहा

जब धैर्य भी साथ छोड़ चले

ये बह चले बहाब की तरहा।।


ये मानते भी हैं ,और सुनते भी है

समझाओ तो , समझ जाते भी हैं

कभी छुप जाते ,नैनन के कोण,

जानते हुए अनजानों की तरहा।।


ये पलकों के भी एहसान बहत

निज आगोश में भर लेते उन्हें।

बांध लेते पल दो पल के खातिर

बेपनाहों को पनाह की तरहा।।


पत्तों के धार टिका ओस है क्या!

कच्ची डोर पे बंधी आशा है क्या!

ठहर न सकता, गिरना भी ना चाहे

टूटी साँसों की शेष तलाश तनहा।।


इन गालों की हाल पे तरस करो

हर कोशिश इनकी नाकाम जाती।

अश्क बहने के बाद रह जाते चिह्न

मरे ज़ख्मों की हरे निशाँ की तरहा।।


जब फ़िसल कर बून्द अश्क के

छोड़ चलते उन गालों से गुज़र

होंठ पी लेते कुछ बूंदों को,लहू-

चाटता ज़ख्मी घोटक की तरहा।।


फिर भी कुछ आह चुप चाप चले

इन होंठो को बिन बताये शायद

टपाक से टपक पड़े उस घड़ी

रहे थे जो कैद वो,बह गये तनहा।।

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# ज़ख्मी घोटक- घायल घोड़ा


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