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Richa Baijal

Abstract

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Richa Baijal

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तलाश

तलाश

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रेत - सी कुछ यूँ घुली है ज़िन्दगी 

की सूखे पत्ते सी लगी है ज़िन्दगी 

मैं चलता गया , वक्त थमता गया 

क़दमों के निशानों के साथ शीशे -सा जमता गया ,

रुकने को वजह नहीं थी कोई 

न एहसासों की जगह कोई 

सो।.. एक मुसाफिर -सा , बस चलता ही गया।

न मंज़िल मालूम थी 

न मुकाम की तलाश थी 

ढलते सूरज को समझता मैं 

फिर कुछ और दूर चलता मैं 

इक सुबह की तलाश में कुछ दूर और चलता गया।

मुझे बेबस न समझना ; 

मैं तो बस गुमनाम हूँ 

मुझसे दिल्लगी न कर ना 

मैं इन लफ्ज़ो से अनजान हूँ 

मोहब्बत से मिलता हूँ , तब बहक जाता हूँ 

हाँ , मैं कुछ अरसे को ठहर जाता हूँ।

न जाने क्या चाहता हूँ मैं 

कि फिर से क्षितिज की ओर बढ़ा जाता हूँ।


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