तलाश
तलाश
रेत - सी कुछ यूँ घुली है ज़िन्दगी
की सूखे पत्ते सी लगी है ज़िन्दगी
मैं चलता गया , वक्त थमता गया
क़दमों के निशानों के साथ शीशे -सा जमता गया ,
रुकने को वजह नहीं थी कोई
न एहसासों की जगह कोई
सो।.. एक मुसाफिर -सा , बस चलता ही गया।
न मंज़िल मालूम थी
न मुकाम की तलाश थी
ढलते सूरज को समझता मैं
फिर कुछ और दूर चलता मैं
इक सुबह की तलाश में कुछ दूर और चलता गया।
मुझे बेबस न समझना ;
मैं तो बस गुमनाम हूँ
मुझसे दिल्लगी न कर ना
मैं इन लफ्ज़ो से अनजान हूँ
मोहब्बत से मिलता हूँ , तब बहक जाता हूँ
हाँ , मैं कुछ अरसे को ठहर जाता हूँ।
न जाने क्या चाहता हूँ मैं
कि फिर से क्षितिज की ओर बढ़ा जाता हूँ।
