तख़्ता हूँ
तख़्ता हूँ
तख़्ता हूँ,
मगर कहीं,
तकता नहीं,
सपने बुनता हूँ,
मगर कहीं,
पिरोता नहीं
स्वप्नों की गहरी,
नींदों में, सो कर
मैं अब ख़्वाबों
को बुनता हूँ,
मगर बुनने
देता नहीं,
आँचल की
ठंडी छाँव में,
पेड़ के नीचे
जब बैठता हूँ,
मगर कुछ
सूझता नहीं।
