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Rajeshwar Mandal

Abstract

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Rajeshwar Mandal

Abstract

थकने लगा हूं

थकने लगा हूं

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 पचास पार करते ही 

 बाल दाढ़ी पकने लगा है

 ऐसा लगता है कि

 अब धीरे धीरे थकने लगा हूं

 भले लोग झूठी तसल्ली दे

 कि अभी तू जवां हो 

 पर जिम्मेदारियों से कमर झुकने लगा है।


 कादंबनी,मनोहर कहानियां अब रास नहीं आती

 धर्म की किताबें खरीदने लगा हूं

 जब जब बैठा पढ़ने गीता रामायण

 पढ़ते पढ़ते ऊंघने लगा हूं


 पास बैठे को गौर से देखता हूं

 अपने में अपनत्व खोजता हूं

 स्मृति भ्रम है यह

 या नजर कमजोर होने लगा है

 स्पीकर ऑन कर बातें करता हूं फोन से

 कहीं उंचा भी तो नहीं सूनने लगा ह

ूं


 पहले लोग भैया कहते थे

 अब चाचा कहने लगे हैं

 इससे पहले कि लोग दादाजी कहे

 बाल अपना रंगने लगा हूं


 जिंदगी क्या है चार दिनों का मेला है

 दो दिन बीत गये दो दिन का और झमेला है

 एक दिन सोने में जाएगी

 एक दिन की चिंता बिमारी है


 काम क्रोध मोह माया सब मिथ्या है

 अब ये बात भी समझने लगा हूं

 ये बात अलग है कि

 बक्से में रखे पोटली को

 दिन में तीन चार बार गिनने लगा हूं


 पचास पार करते ही

 बाल दाढ़ी पकने लगा है

 ऐसा लगता है कि

 अब धीरे धीरे थकने लगा हूं ।


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