तरिणी
तरिणी
बहती नदी की धारा मैं कहती नित ये कहानी
जीवन दायी मां हूँ और हूँ मैं ही बरखा की रानी
फूल फलों पेड़ों को सींचूँ, देती तुमको अन्न
नहीं मांगती मूल्य कभी बस बहती नित प्रसन्न
नवजीवित शिशु और निष्प्राण सभी हैं मेरे तीरे आते
मुझसे हीआशीष लिए फिर अंत मुझी में समाते
पर मानुष बस जाने लेना, करता है व्यापार
माँ को ही दूषित कर डाला, कैसा ये संसार
विष पीकर क्या तुमको फिर अमृत का दान करूँगी
न रहेगा जीवन पृथ्वी पर जो मैं प्रदूषित मरूंगी
समझो जल ही जीवन है बिन तरिणी न जीवन दान
बरसेगी अग्नि प्रलय जो प्रकृति का नहीं करोगे मान।
