स्वप्निल से तुम
स्वप्निल से तुम
एक कहकशी सी हंसी
सच कितनी मासूमियत सी लगी
तुम बोलते गए मैं सुनती रही
तुम साहिल से बहते रहे मैं
एक आस लिए नदी बन साथ चली
कोई लहर शायद उठे उफ़ान लिए
और मिल जाऊं मैं तुम से कही
बहुत निश्चल सी आंखें तेरी
उसमे रचते कुछ ख्वाब मेरे
मैं रोम रोम अम्बर सी रचने लगी
सच तुम जैसे स्वप्निल हो साथ चले।

