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AMIT SAGAR

Abstract

4.3  

AMIT SAGAR

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सूरज और धरती की लड़ाई

सूरज और धरती की लड़ाई

17 mins
315


       

धरती के गुन सुन के यारा

अपने जीवन को है सुधारा

सूरज से जब टुटी थी यह

ना था जीवन ना था प्राणी

देवी दैव भी सायद ना थे

बात है अरबो साल पुरानी

‍धरती ने सन्तोष ही रक्खा

और अपने को ठन्डा बनाया

सूरज तब भी तरस ना खाया

अपने चारों ओर नचाया

सुख में तो सब हँसते हैं पर

दुख में मै हिम्मत ना हारा

धरती के गुन ..................

धरती ने बदले की ठानी

शुरु करी अपनी मनमानी

अपने बदले के चक्कर में

अम्बर की भी एक ना मानी

धरती ने सोचा क्यों ना अब

मैं भी ऐसा करुँ धमाल

ऐंसे जीवों को जन्मू मैं

जो सूरज से करें सवाल

घ्रणित से सुर मे धरती बोली

मुझसे अब तू सूरज हारा

धरती के गुन .................

सबसे पहले रैंगने वाले

प्राणी धरती पर ही अाये

खा पिकर वो मौज मनाते

सूरज से ना आँख मिलाये

रैंगते रहते धरती पर जो

हड्डी थी ना जिनमें कोई

सोचा छोटी गलती है ये

धरती ने बस आँख भिगोई

मैं करती हूँ नया यहाँ कुछ

प्राणी को था हवा ने मारा

धरती के गुन...................

देख दशा धरती ने एेंसी

उड़ने वाले प्राणी बनाये

लम्बी लम्बी चोंचे जिनकी

हाथ बड़े जो पर कहलाये

आसमान मैं उड़े दूर तक

धरती के भी हाथ ना आये

शौक में वो भी उड़ते थे बस

पर सूरज तक उड़ ना पाये

छोटे मोटे तुच्छ खेल में

ताप लगो धरती को सारा

धरती के गुन .......................


जैसें अाज ‌ऋषि करते हैं

धरती ने भी ताप किया

दिल में घ्रणा भरी थी इतनी

सूरज को ना माफ किया

धरती ने इस अकेलेपन मे

एक सोच थी रोज ही सोची

कैंसे बदला लेगी उस से

सूरज पे ये खबर थी पहुँची

उसने भी चौकन्ना होकर

अपना जाल बिछा ही डारा

धरती के गुन ..….............


धरती प्यासी बहुत दिनों से


उसको ना था पानी मिला

तुझसे मेरी बैर ही क्या है

करती है अम्बर से गिला

पानी की खातिर धरती ने

अम्बर पर थे डोरे डाले

एक बार बस पानी दे दे

खुद को करुंगी तेरे हवाले

अम्बर ने जब बात सुनी यह

कहा भैद धरती से सारा

धरती के गुन ......................


अम्बर तो है चाँद से हिलगा

उसको धरती कैसे भाये

पानी की मुश्किल का सामना

धरती अकेले कैंसे उठाये

अम्बर ने उत्तर दे डाला

शत्रु का है तेरी कहना

मैं तो वर्षा कर ही डालू

मिले ना उर्जा मुझको बहना

धरती ने अम्बर से जोड़ा

भाई बहन को रिश्तो प्यार

धरती के गुन ......................


रिश्ते की खातिर अम्बर ने

सूरज से था द्वेष किया

नीचे से खींचा पानी को

और धरती को भैंट किया

धरती को जब मिला मेघ तो

ठन्डक को महशूस किया

अम्वर ने ना कहना माना

सूरज ने अफसौस किया

एक तरफ तो झूठ भरा था

एक तरफ बस सच थो सारा

धरती के गुन...................


फिर हुई थी एक अजब सी घटना

जिसमें आदिमानव आये

गुफा में रहते पैड़ पर चढ़ते

पर तन को वो ढक ना पाये

पशु आदमी नाम था उनका

पूरे तन पर बाल उगाये

हाथो के बल चलते थे वो

पैरो के बल चल ना पाये

हाथ पैर का खेल ये कैंसा

दिन भर खेला रात पसारा

धरती के गुन.................


धरती सोची अब से पहले

जितने भी थे प्राणी बनाये

समय से भोजन मिल जाता है

उनको बुद्धि कैंसे आये

कभी कहीं भी सो जाते हैं

उनको जाकर कौन जगाये

बिन सोचे सब मिल जाता है

क्यों वो बुद्धि अपनी लगाये

धरती को एक चोट लगी थी

उनसे जब ना मिलो सहारा

धरती के गुन .................


मानव से भी लज्जित होकर

धरती ने संडयत्र रचाये

अपने को कड़वा कर डाला

ऊँचे ऊँचे पैड़ उगाये

पहले तो वो चढ़ जाते थे

पर अब भोजन कैंसे पायें

पैड़ो की छिनी थी छाया


जिसमें बैठकर शौर मचायें

धरती ने मानव को चिड़ाया

अब तु मुझसे सूरज हारा

धरती के गुन ...................


बिन भोजन और बिन पानी के

सुस्तेली हो गयी थी काया

मानव जाति बहुत चतुर थी

फिर मन उसने अपना चलाया

पानी की भी कमि थी पायी

पैड़ो को भी ऊँचा पाया

और धरती को कड़वा पाकर

पैड़ो पर ही हाथ बडा़या

फिर अाया कोई देव यहाँ पर

जिसने‌ मानव को दिया सहारा

धरती के गुन .............


पैड़ की चोटी जब पहुँचे तो

वहाँ तोड़कर फल खाये

भूखा पेट भरा उनका तो

सोने नीचे ही वो अये

एक बार तो मिला है भोजन

क्यूँ ना वहीँ फिर हम जायें

बार बार यह क्रिया हुई तो

थोड़ी दूर वो चल पाये

तब जाकर कुछ पेट भरा था

पर पानी मिलता था खारा

धरती के गुन ..................


मानव ने फिर चलना सीखा

ओर पत्थर से आग बनाई

धरती ने संतुष्टि पाकर

अपनी भी थी गौद ऊगाई

धीरे धीरे खेती सीखे

सारे आदिमानव भाई

अब लुंगी बदला सूरज से

धरती ने ये आस जगाई

मानव की  बुद्धि बढ़ता देख

धरती के मन में हुआ उजारा

धरती के गुन ...............


पहले थे ना कपड़े कोई

मानव नंगे रहते थे

सर्दी गर्मी वर्षा आदि

मोटी खाल से सहते थे

बोल भी पाते कम ही सायद

आँखो से ही कहते थे

धर्म कर्म और शर्म की बातें

सब मस्तिष्क से बहते थे

बहुत तुच्छ था जीवन उनका

पर अब बनने को है न्यारा

धरती के गुन ..................


धरती कितने कदम बढ़ी है

सूरज सब कुछ देख रहा था

मन ही मन में घुटन थी उसके

पर गुस्से को सैक रहा था

एक बनाया गोला उसने

जो धरती पर फ़ैक रहा था

कितनी तबाही होगी इससे

खुशी से सूरज चहक रहा था

धरती की थी हीन दश अब

जब सूरज ने जब बम दे मारा

धरती के गुन ............


सुनो किसे क्या हानि हुई थी

सूरज के इस औछे पन से

धरती की तो नसें फटी थी

आई बिकारी मानब तन से

खेत पैड़ पर्वत भी टुटे

जन को मदद मिली ना जन से

मुझपे कैंसा जुल्म किया है

धरती कौस रही थी मन से

धरती ढुंडे ऐसा कन्धा

जिसपे रोये मिटे दुख सारा


धरती के गुन‌ ...............


आंसु पी कर सहन किया था

धरती माता ने यह झटका

उथल पुथल हो गई दुनिया में


कोई निकला कोई वहीं पे अटका

पानी भी वर्षा भर - भर कर

धरती माँ ने उसको सटका

जगह जगह की बिगड़ी हालत

धरती को है अब भी खटका

जो सोचा वो कर ही डाला

सूरज मन में हुआ फुहारा

धरती के गुन ................


जो विपदा धरती पर‌ आइ

वो दुख सारे ढहने लगे

हम धरती के पूत हैं सारे

मानव यह थे कहने लगे

सुख दुख बाँटे सबने अपने

मिलजुल कर सब रहने लगे

अब धरती ने दशा संभाली

सूरज के आँसु बहने लगे

सुख दुख का यह खेल है कैंसा

कोई रोये कोई हँसे दिन सारा

धरती के गुन .................


बदला रंग धरती ने अपना


सूरज के साथी कहने लगे

पहले बारी थी धरती की

अब सूरज दुख सहने लगे

जहाँ पडा़ रेता ही रेता

उसे मरुस्थल कहने लगे

जहाँ बनी थी कच्ची सड़के

वहाँ आदमी रहने लगे

अन्धकार सब मिटने लगा था

सारे जग में हुओ उजारा

धरती के गुन .........

जहाँ भरा गड्डो में पानिु


वो कहलायी नदियां थीं


मानव उसको पिने लगे थे

बीत गयी अब सदियां थीं

जिनमे‌ चार लगे थे पाये

वो बैठने की खटिया थीं


सिर के नीचे रखा था जिनको

वो कहलायी तकिया थीं

जो भी जहाँ पैदा हुआ था

वहीं पे जीवन बीता सारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . .

जहाँ पे पानी रुका हुआ था

वो कहलायी झीलें थीं

ऊँचे नीचे रस्ते जहाँ पर

वो मिट्टी की टीलें थीं

जहाँ पर डाले मानव मल को

वो बदबुदार बीले थीं

जहाँ पर सूरज उगता दिखा

वो पर्वत की चुटिलें थीं

जहाँ पर दिखे ऊँचे पत्थर

उनको हिमालय कहकर पुकारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . .

कहीं पर पानी मिट्टी मिलकर

बन जाता था कींचड़ गारा

खिले हुऐ थे अम्बुज उसमें

नहीं किसी ने उन्हें उतारा

अम्बुज एक बने अनेक

फूल सबसे वो था न्यारा

एक एक करके धरती पर

नस्ल बनी फूलो की हजार


कई फूलों से रंग हैं बनते


रंग गुलाबी सबसे प्यारा


धरती के गुन. . . . . . . . . . .


दिन गुजरे और सालो बीते

लोग प्रगति पाने लगे

पहले पैड़ ले पत्ते खाते

अब वो रोटी खाने लगे

रिश्तो ने था जन्म लिया अब

मानव जिसमें आने लगे

उजड़ गया था पहले जीवन

अब हर फन में गाने लगे

दिन दूनी औेर रात चौगनी

खुशियों के मन्जर था सारा

धरती के गुन. . . . . . .

दो भागो में बँटी थी दुनिया

नाम शहर था और था गाँव

शहरों मे थे ईंटो के घर

गाँव में थी पीपल की छाँव

शहरो को फिर गाँव से जोड़ा

एक जगह जब रुके ना पाँव

शहर गाँव के बीच नदी थी

जिसको पार कराती नाव

अपने पन की खुशबु मिलती

जिसको अपना कहकर पुकारा

धरती के गुन. . . . . . . .. . . . .

अब यह नये नये चमत्कार जब

धरती पर थे होने लगे

देख खुशहाली धरती माँ की

सूरज चाचा रोने लगे

धरती की प्यारी खुशियों से

सूरज आपा खोने लगे

अपने नित नए क्रोध के बीज

धरती पर थे बोने लगे

सूरज धरती का दुश्मन इतना

कि देख उसे बड़ता था पारा

धरती के गुन. . . . . . . . . .

सूरज ने अब क्रोध दिखाया

नौ ग्रहों को फिर और बनाया

उनको भी चक्कर लगवाया

बीच मे धरती माँ को फँसाया

धरती ने मानव को जगाया

इधर उधर था उनको भगाया

होती जब धरती पर हलचल

मानव को था उससे रुलाया

सूरज चाचा बिलेन बने अब

धरती का ना कोई सहारा

धरती के गुन. . . . .   

कई बार जब भुकम्प आया

और लोगो को उसने सताया

शौक में दुनिया डूबी हुई थी

सूरज ने जब कहर था ढाया

कष्ट सहे पहले से हमने

फिर से दौर कष्टो का आया

इतनी ब्रद्धि होने पर भी

जन ने अकेला खुद को पाया

जन जीवन में फैला भ्रम ये

धरती पर ना कोई हमारा

धरती के गुन . .   . .  . . . .

ग्रहों से भी टक्कर होती

बाड़ नियंत्रित ना हो पाये

तब जाकर इनको रुकबाने

अपने कुछ वैज्ञानिक आये

ध्यान दिया कष्टो पर पिछले

उनमें दोष अपने ही पाये

तकनीके फिर ऐंसी बनाई

जो जन को कष्टो से बचाये

अब यह गलती फिर ना होगी

सब ने साथ में कहकर पुकारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . .

हर्ष और उन्नति का दिन था

धरती पर फिर चहल थी आई

अब गुजरेगा अच्छा जीवन

खुशियां थी सब में ही छाई

सभी के चेहरे खिले हुए थे

एक दुजे को दी थी बधाई

पागल होकर नाचे थे सब

और सायद कव्वाली गाई

धरती का मुँह लाल था दिखा

सूरज को मुँह दिखा कारा

धरती के गुन. . . . . . . . . 

सूरज अब बोराने लगा

शाम दैर को जाने लगा

सुबाह को जो खिलती थी कलियाँ

उनको वो मुर्झाने लगा

हवाओ को था उसने बुलाया

हुक्म दिये अपने थे लगा

ह्मदय मे ना मानव के जाओ

धरती से दो उन्हें भगा

दिये हवा ने घूम घूमकर

धरती के विपरित यह नारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . 

कहा सुनि हुई दोनें मे जब

हवाओ ने धरती को कशा

अबकी बार वो जाल था फैंका

उसमें दिया धरती को फंसा

पैड़ो की भी नमी थी गायब

जंगल की थी हीन दशा

पानी मे भी उबले आये

सूरज को जब छाया नशा

अनहोनी की यह थी समस्या

जिसको सोचा और विचारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . . .

धरती और सूरज की जंग में

सबसे विपरित यह थी बात

सूरज के थे लाखों साथी

धरती के ना कोई साथ

सूरज ने अपने चमचों के

रखा हुआ था सिर पे हाथ

धरती पर जाते जब भी वो

टेड़े मुँह करते थे बात

अपनी ही इस कुण्ठता पर

धरती दौष दे किसको सारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . . . 

जन्म हुआ धरती का जबसे

वर्ष गये थे लाखो बीत

मौसम‌ में बदलाव था आया

चलने लगी अपनी भी रीत

कभी कभी तो गर्मी आती

फिर आ जाती ठन्डी शीत

जगजाते हैं लोग सुबाह को

सुनते जब कोयल के गीत

ठन्ड , सिकुड़न , वर्षा गर्मी से

बच्चो को मौसम ने‌ मारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . .

रात रातभर जगते रहते

अक्सर जब होती थी रात

जिन्न भूत का डर तो ना था

शीत ऋतु की यह थी बात

कोई दुश्मन लड़ने अाता तो

दे देते उसको वो मात

कैंसे इससे लड़ सकते थे

चिपक चिपक कर काटे रात

अब ढूंढे कोई ऐसी वस्तु

तन को लागे नहीं ठिठारा

धरती के गुन. .. . . . . . . . . . . .

मानव को कर देंगे नष्ट

मौसम ने रणनीति बनाई

मानव ने पैडो़ को काटा

और उस से थी आग बनाई

ऊन के कपडें जब पहने तो

मिटने लगी तन की ठन्डाई

ऐंसे ही हम लड़ते रहेंगे

मानव ने यह आस जगाई

चली गई थी दुख की छाया

मिटा सुबाह को शीत कुहारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . . . . . . .

फिर गर्मी का मौसन आया

धूप से दुनिया रही थी टूट

घर में से भी आग निकलती

पानी के भी गरम थे घूँट

इसके लिये विरोध जगाया

मची हुई हर तरफ है लूट

इतनी आग भर जाती तन में

दाने लगने लगते फूट

एक गई तो दूजी आयी

कैंसी समस्या है यह यारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . .

सूरज इतनी आग फैकता

आबादी कम होने लगी

वातावरण भी लगा सुखने

धरती माता रोने लगी

कोई सूखे से कोई ताप से

जनता जीवन खोने लगी

सूरज ने वो पत्ता फैका

खुशी उसे थी होने लगी

अब यह मुसिबत कैंसे मिटेगी

करे विचार इस पर जग सारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . .  . . . .

यह भी मुसिबत टल जायेगी

एक दुजे को बताने लगे

पैड़ो के कुछ सूँते खींचे

हाथ के पंखे बनाने लगे

दिन में जब गर्मी लगती थी

कई बार वो नहाने लगे

पानी के जो गरम थे घूँट

घड़े में वो भरचाने लगे

धरती ने सूरज से पू्छाँ

अब कैंसो है हाल तुम्हारा

धरती के गुन . . . . . . . . . . .

धरती के इस तीखे वार से

सूरज आप को रोक ना पाता

राय लेकर साथी जनों से

बादल से पानी वर्षाता

रस्ते पर कींचड़ होती थी

घर में भी पानी भर जाता

हैजा उल्टी जिससे होती

लोगों को वो कैंसे भाता

यूँ ही लोग जब मरते रहेंगे

चलेगा कैंसे अपना गुजारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . .

होती थी जब वर्षा इतनी

रस्तो पर गड्डे खुदवाये

अत्याधिक वर्षा का पानी

उन गड्डो में ही भरजाये

जब वर्षा ने लिया साँस तो

चलने लगी थी शुद्ध हवायें

शितलता की खुशबु पाकर

मानव ने थे जशन मनाये

कभी तो गम है कभी खुशी है

जिसमें मानव हिम्मत हारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . 

खेतो को जब सींचा जाता

तो वर्षा की याद थी आती

पानी की जब कमी बहुत हो

वो क्रषों को बहुत रुलाती

जो पानी गड्डोे में भरा था

उसको दुनिया काम में लाती

खेतों को जब पानी मिलता

हरियाली की फसल थी आती

कभी तो मौसम सुखा होता

कभी रंग होता हरियारा

धरती के गुन. . . . . .

उपयोगी है गर्मी भी पर

जिनके‌‌ पास‌ है अच्छे साधन

पहले से जो बेघर बैठे

वो समझे इसको अपमान

धन दौलत से ऐश खरिदे

एक वार जब लें वो ठान

धन दौलत ऐसी वस्तु है

हर मौसम जिससे लगे महान

कुछ मौसम से लाभ था होता

कोई मौसम बन गया हत्यारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . .

चार माह की गर्मी पाकर

शर्दी को था याद किया

जिस्म को ठन्डा करो हमारे

मौसम से फरियाद किया

उतरी गर्मी चढ़ती ठन्ड ने

लोगो को आबाद किया

फिर गर्मी पाने की खातिर

ईंधन को बर्बाद किया

सूरज चाँहे हो ना अपना

पर हे मौसम होगा हमारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . .

ना थी जिसमें हानि कोई

एक मौसम था सबसे न्यारा

राह तकी लोगो ने उसकी

क्योकि वो था सबसे प्यारा

खुशियां पाकर इस मौसम से

नाम दिया था ऋतु बहार

जीवन में सुख दुख बर्षाते

सारे मौसम यह थे चार

यह थी चार मौसम की कहानी

कोई बुरा था कोई था प्यारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . 

एक शहर से दुजे शहर को

मानव का जब जाना हुआ

जाने में कठिनाई हुई तो

वाहनो का बनवाना हुआ

तेल बिना चलती जो गाड़ी

पहले उनका निर्माण हुआ

जल्दी जाने के चक्कर में

मोर्टर का निर्माण हुआ

ऐंसी ही नई नई खोजो से

मानव का मन किया फुहारा

धरती के गुन. . . . . .  . . . . . . . . . .

मीलो पैदल चलते पहले

बना हुआ है अब वो सपना

एक कदम आगे की सोचे

ना सीखे अब मानव रुकना

ट्रेन बसें साईकल और ट्रेक्टर

इनका एक उपयोग था अपना

खुशहाली की तरफ कदम थे

धरती देख रही थी सपना

दुल्हन भी जाती डोली में

ले जाते थे जिसको कहारा

धरती के गुन. . . . .. . . . . . . . . . .

नगर शहर और देश यहाँ पर

अब आपस में जुड़ने लगे

तकनिको से प्लेन बने जो

वो थे हवा में उड़ने लगे

विकसितता जब कम देखी तो

नई राहों पर मुड़ने लगे

धरती मन में लड्डु फोड़े

सूरज के छक्के छुड़ने लगे

दूर देश तक घूमें हम भी

चेहरे को ना एक निहारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . .

इस दुनिया में इस धरती पर

खोज बिना चलता ना काम

जिस वस्तु की खोज की जिसने

उसमे उसका आया नाम

एक खोज जब सुबाह से करते

लग जाती थी जिसमें शाम

घड़ी तेल साबुन को बनाया

और बनाया झन्डु बाम

एक खोज अब रोज ही होती

आगे होंगी खौज हजारों

धरती के गुन. . . . . . . . . . .  . . . . .

समय की मापन विधी बनी जब

नई तरह की यह थी खौज

गुफा रेत सुर्य की छाया

इन सब की आयी थी मौज

घन्टा मिनट सेकण्ड का काँटा

इन सब को था घड़ी में डाला

मिनट की सूई घूमें पूरी

तो घण्टे का समय निकाला

सारे काम समय पर होते

नहीं किसी ने इन्हें नकारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . . . .


यू.एस.ए में होगी रात

भारत में निकलेगा दिन

सुर्य भ्रमण का ये हे नतीजा

करे नहीं कोई ऐंसा जिन

गैर देश से मिलन हुआ अब

सूरज के थे वो भी शिकार

मानव को जब मरते देखा

उनके दिल में जागा प्यार

अलग अलग से कुछ ना होगा

साथ मे सब ने डेरा डारा

धरती के गुन . . . . . . . . . . . . . . .

‌अनहोनी को रोक सकेंगे

मानव ने थी आस जगाई

इको वायो मेथ और शोसल

साथ में उसके साईंस बनाई

अब वजूद धरती माता का

पहले से मजबूत हुआ

सूरज से वो लड़ सकती थी

सब मानव एकजूट हुआ

मन में मगन हुई थी धरती

सूरज पर जब संकट डारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . . .  

सुरज भी तैयारी करता

अपनी शक्ति बढ़ाने का

सारे जाल बिछा रखे थे

दैर थी सूली चढ़ाने का

कई तारो को उसने तोड़ा

और प्रथ्वी पर उनको गिराया

आसमान में उड़े रहे वो

फिर सुरज ने लौ से डराया

सहना कहना खोना पाना

ये सब हैं कुदरत के नजारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . .

बहुत हुई अब आँख मिचौली

धरती मैदान उतर आयी

खुल के बता दे चाहता क्या है

सूरज से वो बतलाई

सूरज ने जब मुँह खोला तो

धरती चौकस में आई

सूरज ने जो समझाया था

समझ किसी की ना आई

सुनो कहा क्या सूरज ने था

जो सबको चौकस मे डारा

धरती के गुन. . . . . . . .  . . .

तु इतनी भोली थी भाभी

मुश्किल होती तेरी डगर

जो ना देता कष्ट तुझे मैं

ना चलता मानव का जिकर

इतनी खुशियां तुझे ना मिलती

तु कोने में पड़ी रहती

दिन में जगती सुबाह को जगती

रात रात भर ना सोती

जीना इसी का नाम है भाभी

जो बिगड़े उसको दो सहारा

धरती के गुन. .. . . . . . . . . . . .

जरा सोच ठन्डे मन से तु

लागे कैंसी तुझे लाली

शहरो की यह ऊँची ईमारत

गाव की ये कोमल हरियाली

होली दिवाली का यह पुजन

पकवानो से सजी यह थाली

दुख में जब होता है मातम

और खुशियों में बजती ताली

ना थी बैर किसी की भैया

यह किस्मत का खेल है सारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . .

अम्बर के हैं अरबो बच्चे

यह ब्रह्ममाण बना है जबसे

दुनिया ने देखा है इनको

पले बढ़े धरती पर जबसे

कहाँ से दुनिया शूरु हुई थी

कहाँ पे इसका होगा अन्त

लाखो कहानी लोग सुनायें

सबसे आगे जिसमें सन्त

चारो थफ पानी ही पानी

नही था जिसका कोइ किनारा

धरती के गुन. . . . . . . . . . . . . . .

मै भी कवी हूँ मैं भी कहुंगा

पढ़ा है मैंने भी यह सब

कहने की बारी आयी तो

हटुंगा पिछे मैं क्युं अब

जो मन में उमड़न होती है

कवियो ने लिख डाला सब

लाखो कवि हैं इस दुनिया में

जन्म लिया है मैने अब

मुझसे तो कहते रहते हो

पर‌ अपमे को ना तुमने सवाँरा

धरती के गुन सुन के‌ यारा

अपने जीवन को है सुधारा।


   


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