रात के लम्हें
रात के लम्हें
थककर हम घर जाते है
जब शाम सुहानी ढलती है
दिनभर की सूरज की तपन से
जब धूप पिघलने लगती है
बैठे उस किनारे पर जहाँ
हवा कुछ गुनगुनाती है
जो मेरे तराने सुनती है
और खुद के भी सुनाती है
उस पल की तनहाई हमें
कितनी प्यारी लगती है
झिलमल तारो की चमक
जब धीरे धीरे जगती है
हटाकर उस नरमी को
शितलता वो लाती है
नन्हे मुन्ने बच्चों को जो
थपकी देकर स
ुलाती है
फिर करवट सी लेते हैं
अम्बर के काले बादल
आधी रात को लगाते हैं
आँखों में अपनी काजल
फिर पहर बदलने लगता है
रात भी ढलने लगती है
जुगनू भी धुमिल हो जाते हैैं
जब सुबाह दीखने लगती है
धीरे-धीरे भाप बनकर
उड़ जाता है अँन्धेरा
चाँद भी ढीला कर लेता
इस पल अपना पेहरा
शबनम कुन्डी खोलती है
देख रात के सपने
सूरज दस्तक देता है जब
घर द्वारे पर अपने।