सूना पड़ा है गाँव
सूना पड़ा है गाँव
कितना बदल गया सब नहीं दिखता वो जमाना
वो दोस्त वो शरारतें कहाँ चला गया सब पुराना
सूना पड़ा गाँव अब नहीं उड़ती बचपन की वो धूल
जहाँ से आती थी कच्चे मकानों में मिट्टी की खुशबू
अब वहाँ क्यों सब इतना सूना -सूना सा लगता है
मुंडेर पर अब तो कोई कागा भी नहीं चहकता है
जिस मिट्टी में बड़े हुए उसको छोड़ कहाँ चले गए
सूना पड़ा गाँव अब नहीं उड़ती बचपन की वो धूल
गाँव छोड़ अपने सपनों का शहर तुमने बसाया है
खींची रिश्तों में दरारें जब से शहर को अपनाया है
सूना पड़ा गाँव अब नहीं उड़ती बचपन की वो धूल
खेत –खलिहान और ताल -तलैया सब सूख गए हैं
जब से तुम हरे भरे गाँव को छोड़कर शहर गए हो
अब तो मिट गई वो सुनहरी यादों की छाप सभी
काश लौटकर आ जाए वो सुनहरे सभी पल कभी
सूना पड़ा गाँव अब नहीं उड़ती बचपन की वो धूल
महकते फूल आमों की झुकी हर डाली याद करती है
सरसों के फूल आम की खिलती अमराई तरसती है
अलि का झंकृत स्वर पपीहे की कुहू सुना सा लगता है
जहाँ गूंजती थी घर घर आवाजें वो गाँव सूना लगता है
अब चौपालों पर वो मोहक हँसी ठिठोली नहीं सजती है
सूना पड़ा गाँव अब बचपन की वो धूल नहीं उड़ती है !