सुबह
सुबह
सुबह अपने होने के
आनन्द में है
रात शर्मीली दुल्हन सी
अलविदा कह रही है।
पृथ्वी पर
सूखे पत्तों से ढका हुआ शिशु
अपनी खुली हुयी आंखों से
होती हुयी सुबह को निहार रहा है
परिंदे उड़ते हुये ही अपने डैनों से
से बारी बारी उसके मुंख पर
छाया कर रहे हैं।
फूल मस्कराते हुये
अपने शरीर पर सुशोभित
शबनम से उसके चेहरे को धुल रहे हैं,
दुनिया भर का शोर सिमटकर
खामोशी में सिमट गया है।
अक्सर बच्चे रोते हैं
भूख से अकेलेपन में
लेकिन यकीनन
यहाँ कुछ विशिष्ट है।
शिशु मुस्करा रहा है
तृप्ति चहक रही है उसके चेहरे पर
पांव दौड़ने को मचल रहे हैं
आंखें प्रफुल्लित हैं
लगता है
शिशु शिशु नहीं कुछ और है
पृथ्वी पृथ्वी नहीं कुछ और है
सुबह सुबह नहीं कुछ और है
शायद कल्पना से परे
कोई भविष्य है पृथ्वी का
और शिशु का।