स्त्री
स्त्री


स्त्री हूं मैं लाजिम है रचयिता भी मैं ही हूँ
सृष्टि की कायनात हूँ मेरुदंड भी मैं ही हूँ
मत छेड़ा करो मुझे पूरी कायनात संभाले रखती हूं
स्त्री------------
चाहत नहीं थी कभी सूरज चांद तारों की
टूटा तारा भी अगर मिल जाए जोड़ लूंगी उसे भी
पूरा आसमान जो संभाले रखतीहूँ
स्त्री हूं मैं-----------
चट्टान सरीखी कभी हुआ करती थी शायद
इसलिए कोमल लहरें आकर टकराती थी
पर अब खामोश रहती हूँ मै
तुफान को जो संभाले रखती हूँ
स्त्री हूं मैं-------
कभी सफर को मजबूत इरादों के साथ किया था शुरू
रंगीनियों को भी पीछे छोड़ दिया था कभी
पर अब खेलने लगी हूं मैं रंगीनियों से अभी-अभी
रेत की तरह हर लम्हा फिसलने लगी हूँ मैं कभी-कभी
स्त्री हूँ मैं-------------
अंदर की ज्वालामुखी को बड़े जतन
से संभाल कर रखती थी मैं
बेमौके ही सही सरेआम उगलती रहती थी मै
पर अब अँगीठी सरीखी हो गई हूँ मै
तप कर और भी ज्यादा निखरने लगी हूँ मैं
शायद अंगीठी के अंगारों से इश्क हो गया है क्या ?