स्त्री
स्त्री
दिए की लौ सी जलती है दिनरात
अपनी ज्योति से प्रकाश देती स्त्री
आंसू छिपाकर मुस्कान बिखेरती
स्वयं में अस्तित्व खोजती स्त्री
सहनशीलता को अंगीकार करती
बलिदान की प्रतिमूर्ति स्त्री
मकान को सपनों का घर बनाती
घर को ही स्वर्ग बनाती स्त्री
नौ देवियों के हर अवतार को धारण करती
मकान को घर ,घर को स्वर्ग बनाती स्त्री
हर दर्द को कलेजे में दफ़नाती
पीड़ा को आह में नही बदलती स्त्री
जीवन की आपाधापी में अविरल चलती
गृहस्थ जीवन को कंधें पर ढोती स्त्री।
दो पाटों के बीच में पिसती जाती
संकट से कभी न घबराती स्त्री।