स्त्री
स्त्री
जल सी शीतल वो लेकिन अग्नि की ज्वाला है
यूं तो उसके रूप अनेक और हर रूप निराला है
कभी वो छोटी बच्ची बनकर घर-आंगन चहकाती है
तो कभी एक मां बनकर आंचल में छुपाती है
रंगों की किताब वो जीवन में रंग भरती है
हां स्त्री ही है वो जो समाज का श्रृंगार करती है
बहन के किरदार में भी वो खूब लाड़ लड़ाती है
किसी की पत्नी बनकर उसका जीवन वो महकाती है
भावुक मन वाली है लेकिन वो शक्ति का अवतार है
महाकाली वो भवानी समाज का अभिमान है
सहती है पीड़ा मगर, साहस उसकी परछाई है
मुश्किलों का सामना वो डटकर करती है
जरा गौर करो दुनिया वालों लक्ष्मीबाई,
पद्मावती जैसी बहादुर बालाओं की छवि आज भी हर स्त्री में बसती है!