स्त्री हूँ मैं
स्त्री हूँ मैं


चंचल नदी सी हूँ मैं,
अपने ही आवेग में बहे जाती हूँ मैं!
बिना रुके बिना थके,
निरंतर अपने ही वेग में!
कभी टकराई चट्टानों से...
पर न कभी घबराई तूफ़ानों से,
मदमस्त कामिनी सी,
इठलाती सी, लहराती सी,
अपनी ही राह बनाती,
अपने बनाए मोड़ मुड़ जाती हूँ मैं
एक चंचल नदी सी हूँ मैं....
हाँ, एक स्त्री हूँ मैं!!
हुआ सवेरा तो सुबह की धूप ने नहलाया,
रात आई तो चाँद की चाँदनी ने सहलाया,
पर न बदला अपना रंग मैंने,
और न बदला अपना रूप मैंने,
अपने ही रंग रूप में नजर आती हूँ मैं
चंचल नदी सी हूँ मैं....
हाँ, एक स्त्री हूँ मैं!!