स्त्री और प्रेम
स्त्री और प्रेम
प्रेम में खोई स्त्री को
जब मिला नितान्त अकेलापन
तो उसने लगा लिया सिर माथे
बांधकर पल्लू में चीखते सन्नाटे
सुखाकर अपनी आंखों का पानी
अनसुना कर अतृप्त मन की कहानी
वो निकल पडी़ एक दिन
स्वयं की तलाश में
उसने जाना ईश की तलाश सी
दुर्गम होती है स्वयं की तलाश
स्वयं को खोजने की राह में
उससे टकरा गया प्रेम फिर से
मगर थोडा़ बदला सा
टपक पडे़ दो बूंद आंसू
मन की बंजर जमीन पर
खिल उठा हर कोना
जैसे आ गया हो बसन्त
कैद कर लिया उसने
प्रेम को इस बार
मन की तिजोरी में
और फैंक दी चाभी
सागर के बीचों -बीच
उसने महसूस किया
कि खुद को प्रेम करने से
खूबसूरत कुछ भी नहीं .....