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Vinayak Ranjan

Abstract

4.3  

Vinayak Ranjan

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स्तबध ना रह जाऊं मैं कहीं..

स्तबध ना रह जाऊं मैं कहीं..

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65


स्तबध ना रह जाऊं मैं कहीं..

रास्ते रिश्तों से जो सजे थे..

आगे चल उस गली के दाऐं फिर बाँऐ..

सामने दरवाजे उपर की झिंझरी में..

लटके ताले में बंद ना हो जाऐं फिर कहीं..

स्तब्ध ना रह जाऊं मैं कहीं!


शाम की अंतिम किरणों में..

उस गली से सटे एक कुँऐं के अंदर..

कुछ गौरय्यों के महल तो थे ना वहाँ पे..

काश कि वे कुँऐ अब..

जमींदोज ना हो रखे हो.. देख जिन्हें..

स्तब्ध ना रह जाऊं मैं कहीं!


किस्से सुने थे जो सोते सुलाते..

हर इक किरदारों को जामा पहनाते..

अब तो सालों से जगते.. जग को भुलाते..

किराएदारों सा जीवन ये तो नहीं.. देख

स्तब्ध ना रह जाऊं मैं कहीं!


अभिनीत मैं दृश्य अभिनय सा था मेरा..

साक्ष्य स्वरों को भी ना खो दूं..

दस्तखत पड़े उन दिवारों के रुख में..

झाँकने की हद थी उस खुले झरोखे के लिए..

अब.. स्तब्ध ना रह जाऊं मैं कहीं!


याद है किताबों को कलेजे लगाऐ..

गिरता था एक खत रुमाल संग तुम्हारे..

एक बेपरवाह नजरें जो जमीं से कुछ बोलती..

धुल पड़ी धुंधली सी वो सब कुछ कहाँ हैं..

फिर.. स्तब्ध ना रह जाऊं मैं कहीं!


बंद पड़ी उस दरवाजे की झिंझरी को..

माथे की काली बिंदी समझ देर तकता हूँ..

समझ लेता उन कपाटों के खुलने से..

तुम्हारे गालों की हँसी को..

बस बंद ना हो जाऐं ये कहीं..

स्तब्ध ना रह जाऊँ मैं कहीं।


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