सर्वेश्वर
सर्वेश्वर
तुम मानते रहे स्वयं
को मेरा परमेश्वर
और निर्धारित करते रहे
रोज़ मेरे लिये
अनचाही सीमाएं
सेविका और सेव्य
के मध्य कब
प्रस्फुटित हुआ
है प्रेम?
सुलगते अंगारे से
कोयला हुआ मन
परिणीति
है मेरी भावना
की, अन्त तक
तुमसे बदलाव की
आस लगाते रहने की