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Sumita Sharma

Abstract Tragedy

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Sumita Sharma

Abstract Tragedy

पीड़ा पुरुष की

पीड़ा पुरुष की

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क्या स्त्रियों की तरह रो देते हो,

तुम्हारे रोने में आधार नही है।

तुम पुरुष ठहरे तुम्हें

रोने का कोई अधिकार नहीं है।


यही कहकर बचपन से

मेरी पीड़ा को दबाया गया।

मर्द बनो मत रोओ यों

बोलकर फुसलाया गया।


बचपन से मां को देखा

करता था तुम्हारे लिए जोड़ते 

मेरे हिस्से के पैसों से गहने और कपड़े

जब भी कुछ मांगा

तो बोली तू खुद कमा लेना,

और मैं बहल गया

कि तुम पुरुष ठहरे

तुम्हें रोने का कोई अधिकार नहीं है।


मैं तुम्हारे साथ फेरों के वादे निभाता रहा 

तुम चलती रही साज़िशों की गोटियाँ।

बेटी बनने की आड़ में 

तुम खाती रहीं उनके बूढ़े काँपते

हाथों की बनी नर्म रोटियाँ।


पापा और दीदी के प्यार का

यूँ फ़र्ज़ निभाया तुमने

झूठे मुकदमे लगाकर

कचहरी पहुँचाया तुमने

गृहस्थी बचाने की

अब कोई दरकार नहीं है

तुम पुरुष ठहरे तुम्हें

रोने का अधिकार नहीं है।


आज कटघरे में खड़ा

अपने परिवार के आंसुओं पर पछता रहा हूँ।

माँ मैं अपने होने पे शरमा रहा हूँ।

हाथ कानून की बेड़ियों में जकड़े हैं

कैसे सब्र करूं तुम सबको हवलदार पकड़े हैं।


काश माँ तुमने नारी के देवी रूप के साथ

इस छलिया रूप को बतलाया होता।

तो आज परिवार ऐसे न पछताया होता

मेरे बचपन से जोड़े तुम्हारे

गहनों पर तुम्हारा ही अधिकार नहीं है।

फिर भी कहती हो सब्र करो,

मत रोओं  तुम पुरुष ठहरे

तुम्हें रोने का अधिकार नहीं है।


क्योंकि बचपन से यही तो सिखाया है 

अब धीरज चूक गया है

मैं रोना चाहता हूँ और पूछना भी, ससुराल से

कि बेटी ब्याहने की आड़ लेकर 

मेरी माँ के घरौंदे को तोड़ने का

अधिकार तुम्हें किसने दिया।


मैं तो फिर हिम्मत कर लूँगा पुरुष हूँ न

पर तुम्हारे पास बचेगा,

सपनों के खून का बोझ और शून्य।

मैने गृहस्थी बनाने की ख्वाहिश की थी 

तुमने बाजार कर दिया।


तुम कैसी लक्ष्मी निकलीं

जिसने मुझे लाचार कर दिया।

अब तकलीफ बहुत होती है

पर आसार नहीं है

कैसे रोऊँ  मैं तो पुरूष हूँ न 

रोने का अधिकार नहीं है।


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