मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ
अवसान के अंतिम चरण से मिल रही हूँ
निर्झरा थी कीच में अब ढल रही हूँ
धृष्ट मानव के करम की त्रासदी हूँ
अब व्यथित हूँ, मर रही हूँ मैं नदी हूँ।
पर्वतों की गोद में था मायका
कलकलों से थी रवानी भी मेरी
दुग्ध की धारा के जैसा रूप था
अमृतोपम था हमारा ज़ायका।
मंदिरों की घण्टियों का नाद था
मन्त्र थे और आरती का थाल था
हूँ अकेली और बस कुछ मछलियाँ
रूप है बदला हैं घेरे नालियाँ।
माँ के जैसा था कभी सम्मान मेरा
तब था जीवनदायिनी भी मेरा
लालचों के, चक्र की यूँ साक्षी हूँ
अब व्यथित हूँ मर रही हूँ मैं नदी हूँ।
