सरबजीत...
सरबजीत...


इक स्याह अंधेरी कोठरी में
रौशनी के लिए वो तड़पता रहा…
तन से जिन्दा पर अपने ही मन में
हर इक पल वो मरता रहा…
कभी ख़ुद को तो कभी किस्मत को
रह रह कर वो कोसता रहा…
हर प्रहर मृत्यु के आभास पर भी
जीवन के लिए वो मचलता रहा…
कभी निराशा तो कभी बेबसी
कभी मायूसी तो कभी उदासी
इसी उधेड़बुन में घुट घुटकर
काट दिए जीवन के बाईस साल
कभी आंसुओं के साथ उम्मीद भी बहा
कभी हृदय के साथ खुशियां भी जली
हर रोज कचोटता एक ही सवाल
आखिर अपराध था क्या? कि जीना हुआ दुश्वार!
कोड़े खाएं और कष्ट भी झेलें
नाम होने पर भी बेनाम बनें…
जासूसी का आरोप झेलकर
बिन गलती के ही गुनहगार बनें
स्वर्णिम सपनों की बलि चढ़ गई
परिवार की खुशियां भी खाक हो गई
न इक रात भी वो सुकून से सोया
रिहाई के झूठे ख़्वाबों को जगती आंखों में संजोया
बहन का दर्द और पत्नी की पीड़ा
लाख प्रयत्न फिर भी सब अधूरा
होली, दीवाली राखी और लोहरी
सब के मायने हुए अब बेकार…
शायद जानता था कि अब ये ख़्वाब
इस जनम में नहीं होगा साकार
उसकी भावनाएं व उसके अधिकार
सरेआम कुचले गए थे बार-बार
कभी नियति से कभी नियमों से
पर वह लड़ता रहा…लड़ता रहा..
अपनों और हम वतनों की झलक के लिए
हर इक सांस और आस संजोता रहा…
बेड़ियों में बंधी थी आज़ादी फिर भी
रिहाई के लिए क्षण क्षण तरसता रहा…
इक स्याह अंधेरी कोठरी में
रौशनी के लिए वो तड़पता रहा…
तन से जिन्दा पर अपने ही मन में
हर इक पल वो मरता रहा…मरता रहा…