सपनों की माला
सपनों की माला
मैं हर पल तुमसे मिलता था,
मैं सपनों को फिर बुनता था
पल दर पल तुम मिलती रही,
सपनों की माला बनती रही।
वो दो रंगो से सजती रही,
उन सपनो में रंगती रही,
एक सफर की वो शुरुआत थी,
जैसे भरी धूप में बरसात थी।
एक दिन वो माला टूट गयी,
इन हाथों से जब छूट गयी,
उन मोतियों का क्या कसूर,
मैं धागे को ना पिरो सका।
और उस कमजोर धागे से,
खुद को तुमसे ना जोड़ सका,
वो सपने वहीं बिखर गए,
और हम,
उन मोतियों में ही सिमट गए।