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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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स्पंदन

स्पंदन

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हिलते हुये अंधेरे के स्पंदन का

यहसास है मुझे

अंधेरे में भी

और रोशनी में भी।


लोग कहते हैं कि

अंधेरा रौशनी का अभाव भर है

मुमकिन है पर

इतना भर नहीं है अंधेरा

खासकर जब ये मन की

अपनी दुनिया में हो

मन का अंधेरा


एक चमकदार मार्गदर्शक सा

बेलगाम यात्रा पर है

और कुछ नये दृश्य हैं परिवेश में

रौशनी में भी स्पंदन हो रहा है

और मैं लगातार देख रहा हूँ


आकाश में उड़ते हुए बेचैन परिंदे को

थका हारा, उड़ते हुए

सोच रहा है किसी

बृक्ष की डाल पर विश्राम करने की

और उसके मन के अंधेरे को देखिए


लगता है उसे हर बृक्ष जलता हुआ

हर डाली जलती हुई

और विश्राम की उ

सकी कामना

रौशनी की तरह हिल रही है

अग्निमय परिवेश के आभाष में,


और मैं लगातार उसे

सन्देश सम्प्रेषित कर रहा हूँ

बर्फ का एक पहाड़ हूँ मैं

जाने कितने अग्निप्रदेश

बुझे हुये हैं मुझमें


पर मेरे सन्देश उस परिंदे तक

सम्प्रेषित नहीं हो पा रहे हैं

सचमुच मुझे स्पंदित अंधेरे का

यहसास है


और ठीक ठीक उसी तरह

रौशनी के स्पंदन का अहसास मुझे

नहीं होना चाहिये

इसे एक खबर भर होना चाहिये।


मानता हूँ डालियाँ

अग्निमय हैं

पर जाने कितने अग्निप्रदेश

बुझे हुये हैं मुझमें


और मेरी कामना तो यही है कि

इस मेरी अपनी पृथ्वी पर

परिंदे आयें

चहचहाएँ।


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