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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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सफर में हैं

सफर में हैं

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अनुभव के साथ सफर में हैं तो

लगता है कोई साथ साथ है

और जब वो आदमी की तरह

बोलने लगता है

तो आश्चर्य से


चारो तरफ नजरें घुमाते हैं

कि कौन कहाँ बोल रहा है

कोई हो तो न दिखे

फिर चल पड़ते हैं

और आवाजें आने लगती हैं


जो नहीं होना चाहिए

वो खूब हो रहा है

और जो होना चाहिये

वो होने के लिये मचल रहा है

जैसे भागते हुये समय में


कोई पल ठहर सा गया है

ये होना कितना सहजता से

सम्भव था

फिर अब तक हुआ क्यों नहीं।


शायद सहजता

असम्भव सी हो गयी है

या सहज होना

मनुष्य की जरूरत नहीं रही।


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