सोचता क्यों...
सोचता क्यों...
जब कहने को भी होते बहुत कुछ,
पर कहना मुनासीब होता नहीं।
सहने की सीमा लांघ चले धीरज,
कुछ करने को जी करता नहीं।।
तब किस से कहें चुप कैसे रहें,
जब खुद ही पे खुद का चलता नहीं।।
जब दिलों में लगता दरक सा कोई,
चोट लगे जिगर में फरक सा कोई।
अगर पलट के बोलना नागवारा लगे,
चुप रहना भी मुमकिन होता नहीं।।
तब किस से कहें चुप कैसे रहें,
जब खुद ही पे ख़ुद का चलता नहीं।।
मालूम हो अगर सफर का डगर,
बहकाने लगे कोई दूजा अगर।
जुदा कर साथ हाथ छुड़ाने के ,
सिवा राह कोई अगर होता नहीं।
तब किस से कहें चुप कैसे रहें,
जब खुद ही पे खुद का चलता नहीं।।
यहाँ धुंध बहुत मगर धूप भी है,
हर चेहरे के पीछे कई रूप भी है।
जो दिखता प्यार, गर छलावा हो,
टूटे शखों में पत्ता तो पलता नहीं।।
तब किस से कहें चुप कैसे रहें,
जब खुद ही पे खुद का चलता नहीं।।
जब सोचता हूँ क्यों ऐसा होता अक्सर,
क्यों छूट जाते अरमानों का सफ़र ।
थोड़ा हिम्मत हौसला जिद्द अडिग पन,
क्यों ख़ुद ही खुद में जगाता नहीं।।
क्यों किस से कहें चुप क्यों भी रहें,
क्यों खुद ही पे खुद का चलता नहीं।।