कर्मपथ
कर्मपथ
कर्मपथ पर चल पड़ा हूँ, देखते हैं क्या मिले
शूल होंगे राह में या फूल भी होंगे खिले
जानता हूँ मैं कि यह पथ अनगिनत काँटों भरा
किन्तु काँटे ही सदा रखते हैं फूलों को हरा
वीर क्या जो कंटकों के डर से दामन छोड़ दे
वीर तो वो है कि जो सरिता की धारा मोड़ दे
वीर की हुंकार से धरती हिले अम्बर हिले
कर्मपथ पर चल पड़ा हूँ, देखते हैं क्या मिले।
पर्वतों को काटकर राहें बनाते हैं सदा
और सागर की लहर पर घर बसाते हैं सदा
आसमां में छेद करके पार जाने की ललक
और उस ब्रह्माण्ड में दुनियाँ बसाने की कसक
ये वीर हैं जो विश्व को खुशफक्र करते ही चले
कर्मपथ पर चल पड़ा हूँ, देखते हैं क्या मिले।
बहती नदी की धार को यूँ मोड़ना तो ठीक है
किन्तु सोचो इस नदी को सोखना क्या ठीक है
काटकर राहें बनाओ पर्वतों पर रोज तुम
किन्तु पर्वत को मिटाना सोच लो क्या ठीक है
संहार का यह रौद्रमार्ग क्लीव ही केवल चले
कर्मपथ पर चल पड़ा हूँ, देखते हैं क्या मिले।
वीरता की बात है तो विश्व में सौहार्द कर
हर मनुज से प्रीत कर और हर मनुज से प्यार कर
देख लो आबो हवा जग की बदलने है लगी
वसुधा करे श्रृंगार और खिल उठे मन की कली
सुघर और सुवर्ण वीरता से महि का मन खिले
कर्मपथ पर चल पड़ा हूँ, देखते हैं क्या मिले।
अपने भुजदण्डों से धरा का करने मैं श्रृंगार चला
शोभा महि की बढ़ाने को, लेकर मन में आगार चला
चला गगन में अंकित करने स्वर्णिम एक इतिहास
कर सके जगत तो आज करे भूषित भविष्य आभास
"रुद्र" की यही तमन्ना है भारत को महि का ताज मिले
कर्मपथ पर चल पड़ा हूँ देखते हैं क्या मिले।
