कला को अपने सफर की परिभाषा बनाओ
कला को अपने सफर की परिभाषा बनाओ
मुझे ना अल्फाज़ो से मोहब्बत है,
लफ़्ज़ों को पिरो कर कहानियां-कविताएं बुनना मेरे लिए मानो जैसे कोई इबादत है।
एक सपना ही था कि रोज़ कागज़ पर स्याही से जज़्बात बिखेरू और लोगों तक पहुंचाऊं,
और अगर शिद्दत से देखों और मेहनत करो न, तो सपने सच हो ही जाते है।
मेरा भी हुआ।
स्कूल की मैगजीन के लिए एक कविता लिखी जिसपे काफी वाह वाही मिली।
ऐसे दोस्त जिन्हें कविताएं पढ़ने का शौक था, मेरे जिंदगी के बाग में उनकी बहार खिली।
मुझे इंस्टा पर काफी काव्य प्रतियोगिताएं मिली जिसमें मैं हमेशा या तो जीती या टाॅप 10 में रही।
और मेरी लेखककीय जिंदगी कामयाबी के राह पर चली।
पर धीरे-धीरे चीजें थोड़ी बदल सी गई ।
मरी कविताएं अब इंस्टा पर प्रकाशित होना बंद होने लगी।
टाॉप 10 के लिस्ट में मेरा नाम नहीं हो रहा था शामिल कहीं।
जो दोस्त मेरे कविताएं पढ़ तारीफ किया करते थे, उनके पास अब था समय ही नहीं।
ऐसे ही वक्त बीतता गया, और मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि कब मैंने लिखना बंद कर दिया।
जिस चीज से मुझे खुशी मिलती थी, मैंने उसी से मुंह फेर लिया।
तो जैसे ही नया साल आया, मेरे पास भले कोई वजह नहीं थी लिखने की पर मैंने फिर भी कागज़ और कलम उठाया और बेशर्त, बस लिखना शुरू कर दिया। और रोज कुछ लिखने का सबब जारी रखा।
दोस्तों , कभी कभी हम कामयाबी, मौकौं, जीत, प्लैटफॉर्म, अप्रिसिएशन, को हमारी जर्नी में इतनी इम्पारटैंस दे देते हैं कि हमारी कला कहीं पीछे रह जाती है, उसकी चमक फीकी पढ़ जाती है।
तो सुनों, अपनी कला को अपने सफर की परिभाषा बनाओं, नाकि अपने कामियाबि को।
तुम लिखों, नाचो, गाओं, बनाओ,
बस अपनी कला को दिल से, मेहनत से, बेहिसाब जियों,
और देखना, मौकें खुद तुम्हारे दर पर दसतक देने आएंगे।
तुम्हारे कला में अगर सच्चाई है, तो भले वक्त लगे, मगर कामयाबी के सारे मकाम तुम से हाथ ज़रूर मिलाएंगे।
