है सुकून क्या?
है सुकून क्या?
सुकून की तलाश में, फिरती रही मैं दर-बदर
न जाने कहां छिपा था वो, आया नहीं कभी नज़र!
लगा दूर उस मकाम पर , मिल जाएगा मुझे सुकून का मंज़र ,
बस उसको पाने के लिए मैंने बदल लिया अपना शहर।
अकेले आगे बढ़ गई, पीछे छोड़ अपना वो घर
मंजिल थोड़ा कठिन तो था, राह भी थी हल्की सी जर्जर,
पर होंसला संग था मेरे, इसलिए मैं चलती रही डट कर।
लगा कुछ पलों में मंजिल पर पहुंच कर, मुझे सुकून मिल पाएगा
क्या मालूम था मुझे, कि चाहतों को फिर मेरी,
सुकून का नया मुकाम दिख जाएगा!
मैं फिर उड़ी, यह सोच कर कि तलब मेरा पूरा हो जाएगा,
उस नये मुकाम पर सुकून मुझे मिलने आएगा!
इस उड़ान ने मुझे था यहां सब दिया ,
बहुत उड़ी इस आसमान पे मैं, पर अब ज़रा सा थक गई!
बैठी मैं एक जगह, वहां दिखी मुझे एक शख्स की छवि
उसके पास वो सुकून जो मुझे कभी मिली नहीं!
मैंने समीप जाकर उसके कहा कि तुम्हें ही तो तब से ढूंढ रही
अंधेरे में तुम क्यों रहे? आओ थोड़ा सा सुकून को बांट लें, मैं इंसान नहीं हूं बुरी!
फिर हुई थी रोशनी, सामने नहीं था कोई,
हां एक आईना ज़रूर था, था उस आईने में अक्स भी।
वो अक्स मेरा ही था, उस अक्स ने कहा मुझे,
क्यों खुद को इतना तड़पा रही, क्यों लंबी उड़ाने जा रही भरी?
पा लिया तुने सब, अब बात को समझ जो मैं हूं तुझसे कह रही ।
होड़ में तो हर कोई है मुझे तलाशता,
पर है क्या सुकून यह कोई नहीं है जानता।
मैं अपनो का प्यार हूं, मैं तेरे दोस्तों का दुलार हूं।
मैं तेरी खामोशी में लिखा हुआ नज़्म हूं ,
मैं तेरे हुनर का खुमार हूं, मैं प्रकृति में बसा नूर हूं।
मैं इबादत में हूं,मैं मुस्कुराहट में हूं
मैं प्रेरणा में हूं, मैं आशीर्वाद में हूं
मैं तो हर छोटी-छोटी बातों में मिलने वाला जाम हूं
मैं कोई खास नहीं हूं, आम हूं
मैं तुझ में सदैव ही विद्यमान हूं।
हां वह मुकाम महज़ जूनून था, पास में सुकून था
तू तीरगी में थी रही और चाहतों से थी घिरी
बस इसलिए तुझे मैं कभी नहीं दिखी।
तू है खड़ा जहां कहीं, आंख मूंद के देख अभी,
मैं तुझे भी मिल जाऊंगा वहीं ।
बहुत छान लिया मुझे ख़ाक पर,
अब ज़रा तीरगी को काट कर, रोशनी को साथ ले,
अब ज़रा तीरगी को काट कर, रोशनी को साथ ले,
है सुकून क्या,अब तू यह बात जान ले।
है सुकून क्या, अब तू यह बात जान ले।
