सोचना जरूर
सोचना जरूर
आज जरा अंतर्मन झांको,
एक राम वहाँ विराजे हैं,
अहंकार के रावण में अब,
राम की भूली यादे हैं,
खोज रहे तुम मंदिर द्वारे,
राम राम पुकार पुकार,
राम का आज रूप ओढ़,
कितने रावण साजे हैं,
क्या सोचे तुम मनुज,
क्या तुम रावण रूप न धरे,
जब जब लुटी आज अस्मिता,
क्या मौन मुख पर तेरे न सजे,
कभी लूटते अस्मिता रावण,
कभी मौन बन साथ देते हैं,
कितनी सीता आज बिलख रही,
फिर राम कभी क्यो न जागते है,
कैसे करूँ आलोचना मानव तन की,
जो ईश्वर का वरदान हैं,
आज बिलखती वसुधा का,
हे नर,मौन तेरा परिणाम है।
न किया विरोध जो पाप का,
रावण का ही रूप धरा,
केवल पुतले जला जला,
कलुषित की वसुंधरा।
जो होता तू राम भक्त,
जलाता खुद के रावण को,
प्रकट करता खुद का राम,
अंतस में विरजा जो,
एक विद्वान था वो रावण,
अहंकार,वासना की भेंट चढ़ा,
सोच तेरे कर्मफल का,
क्या परिणाम देगी धरा,
तोड़ जरा अब मौन भी तू,
खुद के रावण को मार कर,
जला सभी अन्याय की रातें ,
श्रीराम की मशाल बन,
आज न जगा तो तू ,हे नर,
विजयदशमी क्या मनाएगा,
जब तक तेरे अंदर रावण,
अट्टाहास लगाएगा,
रोक आज इस अट्टाहास को,
अपने श्रीराम के रूप से,
जाग जरा अब खुद से तू,
श्रीराम के स्वरूप से।।