संगम
संगम
दरवाज़े के नीचे संगम था
रोशनी और अंधेरे का
जो जायज़ है हमारी दुनिया में
मगर मिलन सिर्फ दरवाज़े तक रहा
फिर अंधेरा अंधेरे में रहा
और रोशनी रोशनी में रही
अगर लगाव हो तो बंदिश कैसी?
क्या पता अंधेरे को रोशनी पसंद ना हो
या रोशनी को अंधेरे में डर लगता हो
लेकिन उसे नहीं लगता!
किसे? प्रेम को!
क्या ?डर!
कब से ?जब से 'प्रेम' नीला हो गया!
पहले चमकती थी आँखें 'पारस' की
प्रेम को समीप पाकर
उसके छुअन से मिटती थी
कमर की घमोरियां
बदन पर दौड़ती थी
शरारती गिलहरियां
दोनों से दिल नहीं संभलता था
जैसे बादल से बिजलियां
मगर संभालते थे दोनों एक-दूजे को
जैसे सागर नदियों को संभालता है।
पहले घुल जाता था प्रेम
पुरानी पेटी की धुन में
मटके की तान पर
उस कबूतर की गूटरगूं में
जो आता था मकान पर
अब नहीं लौटते हैं कबूतर
ना ही बजती हैं पेटियां
बदन भी छुआता नहीं हैं अब
टीस उठती है फफोलों में उसके
दिल भी थम सा गया है
जब से बिजलियां गिरी हैं सवालों की
कान सूने पड़े हैं दीवारों के भी
कमरे का हाल बुरा था
प्रेम नीला पड़ा था और पारस जलता रहा
पहले रोशनी निकली फिर बस अंधेरा रहा।