हकीकत की ओर...
हकीकत की ओर...
आईना छूटे तो मैं बिखर क्यों नहीं जाता
टूटे हुए दिल में कोई मर क्यों नहीं जाता,
मैंने रास्तों से काँटे निकाले है बहुत बार
ये गुलाबों का मंजर सँवर क्यों नहीं जाता,
मेरी नजरों से पिघलता तेरे हुस्न का आब़
ये कागज़ का समंदर भर क्यों नहीं जाता,
क्या मिलता है चाँद को रातभर गुमशुम घूमकर
ये आवारा आशिक आखिर घर क्यों नहीं जाता,
घर लौटता है आदमी दिल बदन तोड़कर
अपनों से मिलकर वह ठहर क्यों नहीं जाता,
तेरी जिंदगी बैठी है हकीकत की तलाश में
खाक़ तू सपने छोड़कर उधर क्यों नहीं जाता।