समाज :)
समाज :)
समाज की नहीं होतीं खुद की ख्वाहिशें,
वो छीन लेता है ये किसी की आत्मा से |
पेड़ों पर पक्षी चहचहाते हैं, पेड़ों पर अपने घोंसले बनाते हैं,
पेड़ भी उनसे कह दे जो कि उसे खुद को संवारना है,
तो पक्षी मर जाएंगे, घर से छूट जाएंगे |
समाज और इसके लोग, समाज और इसके रिवाज़,
समाज और इसकी रीतियाँ, समाज और इसकी सीमायें,
किसने इन चीज़ों को गढ़ा होगा? किसने इन चीज़ों की नींव दी होगी?
उसने सोचा होगा ये कि समाज में रहने वाला हर शख्श इनसे ही मेल खायेगा?
अगर कोई अलग हो गया, समाज से हटकर हो गया?
अगर कोई समाज में रहने में विफल हो गया, वो खुद में जीकर ही सफल हो गया?
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कोई कहेगा ही नहीं वो जिया है कोई?
अस्तित्व उसका मिटा दिया जाएगा, नाम-ओ-निशां उसका हटा दिया जाएगा?
इतिहास झूठ बोलता है, इतिहास लिखने वाले मतलबी होते हैं,
वही लिखते हैं जो मन करता है उनका?
ये कबसे किसी ने सोच लिया कि सब एक जैसे हैं बाहर से?
ये कबसे किसी ने सोच लिया कि पांच लोग एक हैं तो छंटवा भी वही होगा?
समाज नहीं चाहता खुदको टटोलना, वो अलग शख्स को टटोलता है
समाज नहीं चाहता खुद बिखरना, वो अलग शख्स को बिखेरता है,
कभी मिट्टी सा कर देता है, कभी लोहे सा कर देता है
समाज की नहीं होतीं खुद की ख्वाहिशें,
वो छीन लेता है ये किसी की आत्मा से!