STORYMIRROR

Shubhra Ojha

Abstract

4  

Shubhra Ojha

Abstract

सिर्फ बेटी

सिर्फ बेटी

2 mins
453

घर सज गया था लड़ियो से

चहल पहल थी खूब सारी,

मौका था मां के सालगिराह का

सबने की थी खूब तैयारी,

एक आंटी से


मां ने मुझको मिलवाया

बोली फिर मुझसे 

ये है मेरी दोस्त पुरानी,

झुक कर मैंने पैर छुए 

तो देख मुझे आंटी मुसकाई,

फिर बोली वो मां से


बहुत छूट दे रखा है बहू को तुमने

सभी नात- रिश्तेदारों के बीच

खड़ी है ये मिडी पहन के,

इतना कहकर भी वो चुप हुई नहीं

मां के कंधो पर रखा अपना हाथ

फिर थोड़ी सिम्पैथी दिखाई,


तुमने तो बहू को समझाया होगा,

घर के रीति- रिवाज बताया होगा, लेकिन

आज कल की लड़कियां 

सुनती कहां है सास की,

ससुराल को नहीं मानती है अपना घर


पराये घर से जो आई होती है,

सुनकर उनकी बातें 

मेरा मन भर आया,

पूछा मैंने मां से 

आपको भी क्या ऐसा लगता है,

कि यह घर मेरा कुछ नहीं लगता है,


कौन सी रीति इस घर की मैंने नहीं निभाई,

सबको समझा अपना मैंने

सबके हां में हां मिलाई,

आपने अपनी सालगिराह पर

मुझको ये ड्रेस दिलाई,

बात मान ली मैंने आपकी


पहन के मैंने यह ड्रेस दिखाई,

क्या, फिर भी मैं हूं पराई ?

मेरी बात सुन,

प्यारी मां मुसकाई,

मुझको गले लगाकर


फिर आंटी को समझाई,

बहू इसे समझा नहीं

ये है मेरी बेटी सयानी,

मैं तुमसे सिर्फ इतना कहना चाहूंगी

बहुओं को भी बेटियों के जैसे रहने दो

जो भी उनका दिल करे वो उन्हें करने दो,


कपड़े पहनने के ढंग से,

उनका कैरेक्टर ना तौलो तुम,

जब लड़की पहली बार ससुराल आती,

वो एक घर की बेटी ही रहती,

लेकिन हम अपने संस्कारों के नाम पे 


शुरू करते है निर्माण बहू के,

तो अब बस, सबको इतना करने दो

बेटी को हर जगह सिर्फ बेटी ही रहने दो।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract