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Charumati Ramdas

Abstract

4  

Charumati Ramdas

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श्वेत रात

श्वेत रात

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मुझे सपना आता है गुज़रे हुए ज़माने का,

पीटर्सबुर्ग की तरफ़ वाला घर.

स्तेपी के गरीब ज़मींदार की बेटी,

तुम – ‘कोर्स’ कर रही हो, कुर्स्क में जन्मी हो.

 

 तुम – प्यारी हो, तुम्हारे प्रशंसक हैं.

इस श्वेत रात को हम दोनों,

तुम्हारी खिड़की की सिल पर बैठे हुए,

देख रहे हैं नीचे तुम्हारी गगनचुम्बी इमारत से.

 

सड़क की बत्तियाँ, जैसे गैस की तितलियाँ हों,

भोर ने छुआ पहली थरथराहट से,

उसे जो मैं हौले से तुमसे कह रहा हूँ,

इतना सोती हुई दूरियों जैसा.

 

हम जकड़े हैं उसी

रहस्य के प्रति कायर निष्ठा से,

जैसे अपने विशाल दृश्य से फैला हुआ

पीटर्सबुर्ग असीमित नीवा के पार.

 

वहाँ दूर, घनी सीमाओं में,

बसन्त की इस श्वेत रात में,

बुलबुलें गुँजा रही हैं जंगल की सीमाओं को,

गाकर ज़ोर-शोर से प्रशंसा-गीत.

गूंजती है शरारती चहचहाहट,

नन्हे पंछी की ठण्डक पहुंचाती आवाज़

जगाती है उत्साह और परेशानी

मंत्रमुग्ध वन की गहराई में.

 

  उन जगहों पर, नंगे पैर चलने वाली मुसाफ़िर की तरह

रेंगती है रात बागड़ के किनारे,

और उसके पीछे खिड़की की सिल से पहुँचता है

सुनी हुई बातचीत का निशान.

 

फ़ट्टों वाली बागड़ से घिरे बागों से होकर,

सुनी हुई बातचीत की गूंज में

सेब और चेरी की टहनियाँ

सजती हैं श्वेत पोषाक में.

 

और वृक्ष, भूतों जैसे, सफ़ेद

बिखरते हैं झुण्ड बनाकर रास्ते पर,

जैसे बिदा ले रहे हों,

श्वेत रात से, जिसने देखा है बहुत कुछ।


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