अलेक्सान्द्र पूश्किन की एक कविता
अलेक्सान्द्र पूश्किन की एक कविता
चाहा तुम्हे:
चाहत की आग अब भी शायद,
मेरे दिल में बुझी नहीं पूरी;
मगर न भड़्कायें तुमको अब ये शोले,
सौगात दर्द की तुम्हें न अब दूँगा।
चाहा तुझे ख़ामोशी से, बेउम्मीदी से,
कभी डरते-डरते,
कभी रश्क से जलते;
मगर चाहा इस सच्चाई से,
इस नज़ाकत से,
ख़ुदा करे कि रहो तुम औरों को भी यूँ ही प्यारे।

