शीत ऋतु की एक शाम
शीत ऋतु की एक शाम
श्वेत रंग है वसुंधरा पर
श्वेत ही हैं सारी सीमाएँ,
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले
जैसे पतंगे ग्रीष्म ऋतु में
मंडराते हैं लौ के पास,
हिमकण उड़कर टकराते हैं
खिड़की के शीशे के पास
अथक प्रहार करें शीशे पर
झंझावाती तीर-कमान,
जले शमा एक मेज़ पर,
शमा जले
उजली छत पर हैं
पड़ती छायाएँ,
हाथों-पैरों के सलीब हैं
और सलीब नसीबों के
गिरे मोम के दो जूते
खट्-खट् करते फ़र्श पर,
और मोम के अश्रु बहे
वस्त्रों को भिगोते टप् टप् टप्
खो गया झंझावात में
सब कुछ बूढ़े और सफ़ेद,
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले
सहलाया हवा ने शमा को ऐसे
लपट उठी स्वर्णिम, लुभावनी,
फ़रिश्ते दो परों वाले जैसे
सलीब की तरह
चाँद फ़रवरी का सफ़ेद है,
मगर न जाने फिर भी क्यों,
जले शमा एक मेज़ पर
शमा जले
