श्रम धनी
श्रम धनी
#prompt1
शहर के चौराहों पर अपना श्रम बेचने
यूँ ही लग जाते हैं अल सुबह मेले,
जिसकी मेहनत ज़्यादा,बोली होती कम
साँझ ढले उसके घर जल पाते चूल्हे।
जब तक शरीर में बल है बाकी
दहाडी पर जीविका का बोझ ढोते,
श्रम शक्ति क्या क्षीण हुई उसकी
दाने दाने को भी मोहताज़ होते।
दिन रात मज़दूरी,उसकी है मजबूरी
वरना कौन खिलायेगा भोजन भरपेट,
न परवाह करे वो घाव नासूरों की
परिवार की मुस्कान देख लेता दर्द समेट।
माथे पर क्यूँ उभरी चिंता की लकीरें
आजतक कौनसा कानून ये जाँच पाया,
किस पीड़ा से दो चार हो रहा वो रोज़
किसने उसके बुरे समय में उसको गले लगाया।
उसको कहाँ चाहत मुफ्त की दौलत मिले
फकत दो जून की रोटी को पलायन करता रहा,
व्यर्थ ही लगती बातें निरर्थक लगते सब कानून
जब आज भी श्रम धनी,वही किल्लत झेल रहा।