श्रीमद्भागवत -४८;देवहूति के प्रश्न तथा भगवान कपिल द्वारा भक्तियोग की महिमा का वर्णन
श्रीमद्भागवत -४८;देवहूति के प्रश्न तथा भगवान कपिल द्वारा भक्तियोग की महिमा का वर्णन


पिता के वन जाने का बाद
कपिल जी रहने लगे बिंदुसार में
विराजमान आसन पर एक दिन
देवहूति ने कहा प्यार से।
संपूरण जीवों के स्वामी हो
आप ही भगवान आदिपुरुष हो
अज्ञान अंधकार को मिटाने
सूर्य की भाँति उदय हुए हो।
देह आदि में जो ये दुराग्रह
होता मैं और मेरे पन का
होता आप के कारण ही है
महामोह ये दूर करो मेरा।
आपकी शरण में आई हूँ मैं
ज्ञान जानने प्रकृति और पुरुष का
आपको मैं प्रणाम करूँ और
आप से ज्ञान प्राप्ति की इच्छा।
मैत्रेय जी कहें, हे विदुर जी
अभिलाषा जानी जब माता की
करने लगे उनकी प्रशंसा
इस प्रकार फिर कहें कपिल जी।
अध्यात्म योग के सिवा ना कोई
कल्याण का साधन मनुष्यों के लिए
ये योग सुनाऊँ आपको
दुःख सुख की निवृति हो इससे।
जीव के बंधन और मोक्ष का
कारण मन ही माना गया है
विषयों में आसक्त हो ये तो
बंधन का हेतु होता है।
परमात्मा में अनुरक्त होने पर
मोक्ष का कारण बन जाता
काम लोभ आदि विषयों से
मुक्त हो बिल्कुल शुद्ध हो जाता।
फिर ये सुख दुःख से छूटकर
सम अवस्था में आ जाता
हृदय भी मनुष्य का मुक्त होकर फिर
आत्मा का दर्शन कर पाता।
सत्पुरुषों के समागम में ही
कथाएँ होतीं जो ज्ञान दिलातीं
श्रद्धा भक्ति का विकास हो
प्रभु की प्राप्ति हो जाति।
देवहूति ने पूछा, भगवन
स्वरूप क्या है, आपकी भक्ति का
जिससे की सहज में ही मैं
प्राप्त करूँ निर्वाणपद आपका।
आपका कहा हुआ योग कैसा है
और कितने अंग हैं इसके
आप सुगमता से समझाएँ
इच्छा सुनने की मेरे मन में।
मैत्रेय जी कहें, देखो विदुर जी
जिसके शरीर से जन्म लिया था
उस माता का अभिप्राय जानकर
हृदय में स्नेह उमड़ आया था।
तब उन्होंने सांख्य शास्त्र का
अपनी माँ को उपदेश दिया था
प्रकृति आदि तत्वों का निरूपण
इसी शास्त्र द्वारा किया था।
साथ में वर्णन किया योग का
और भक्ति के विस्तार का
कपिल जी ने तब दिया था माँ को
ज्ञान प्रभु के निस्वार्थ प्यार का।
जिसका चित प्रभु में लगा हो
मेरी प्रसन्नता के लिए कर्म करे
मेरे पराक्रमों की चर्चा करे
मेरे रूपों का वर्णन करे।
ऐसे मेरे भक्त जो हैं वो
वो अगर खुद भी ना चाहें
मैं सब कुछ उनको दे देता
वो मेरा परमपद पाएँ।
अविद्या से जो निवृत हों
कामना ना भी हो वैकुंठ धाम की
मेरा धाम और अष्टसिद्धि मिलें
चाहे इच्छा ना भी हो उनकी।
जिनका मैं हूँ प्रिय आत्मा
इष्टदेव, पुत्र, गुरु, मित्र
मेरे आश्रय जो भक्त हैं रहते
कृपा मेरी रहती है उनपर।
वैकुण्ठ धाम में पहुँचें वो जब
कालचक्र भी ना ग्रस सके
अनन्य भक्ति से भजन जो करे
पार हो जाए संसार सागर से।
मैं साक्षात भगवान हूँ
प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ
समस्त प्राणीयों की आत्मा हूँ
सारे चराचर में बस मैं ही हूँ।
मेरे भय से वायु चले है
सूर्य तपता मेरे ही भय से
मेरे भय से इंद्र वर्षा करे
अग्नि जलाती मेरे ही भय से।
मेरे ही भय से मृत्यु
अपने कार्य में प्रवृत होता हैं
उन मनुष्यों का कल्याण है होता
जिनका चित मुझमें स्थिर होता है।