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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत ४ ;धुंधकारी और गोकर्ण की कथा

श्रीमद्भागवत ४ ;धुंधकारी और गोकर्ण की कथा

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सनकादि एक इतिहास सुनाएं

तुंगभद्रा नदी के तट पर सुंदर

एक नगर जिस के वासी थे

सत्यकर्मों में रहते तत्पर।


आत्मदेव एक ब्राह्मण तपस्वी

धनी था पर जीता भिक्षा पर

पत्नी धुन्धुली, कुलीन सुंदरी

जिद्दी थी, किसी बात का ना डर।


रोज कुछ बकवाद करे वो

पर गृहकार्य में निपुण बड़ी थी

झगड़ालू थी, संतान कोई ना

गृहस्थी उनकी सुखी नहीं थी।


तरह तरह के पुण्य कर्म किये

पर औलाद न हुई थी उनकी

इक दिन वन को चला दुखी हो

जब चिंता बढ़ गयी उस ब्राह्मण की।


प्यास लगी, एक तालाब दिखा उसे

जल पिया, बैठ गया वो गुमसुम

तभी एक सन्यासी आये

पूछें, दुखी इतने हो क्यों तुम।


ब्राह्मण बोले संतान नहीं कोई

इसी लिए इतना दुखी मैं

प्राण त्यागने मैं यहाँ आया

आप बताएं क्या करूं मैं।


सन्यासी करुणा से भर गए

योगविद्या से प्रारब्ध देख लिया

बोले सात जन्म में भी

तुम्हारे हो सकती संतान ना।


हठ करके तब ब्राह्मण बोले

पुत्र चाहिए, करो तुम कुछ भी

अगर आप आश्वासन ना दो

यहीं प्राण त्यागूँ मैं अभी।


सन्यासी बोले पूर्व काल में

राजा सगर को, और अंग को

उनकी ही संतान के कारण

कष्ट बहुत सहने पड़े उनको।


चित्रकेतु ने विधाता का

लेख मिटने का था हठ किया

पर बाद में पछताए वो

जब इसने उनको कष्ट दिया।


फिर भी ना माना था ब्राह्मण

तब एक फल देकर कहा उससे

अपनी पत्नी को ये खिलाना

उसके एक पुत्र हो इससे।


तुम्हारी स्त्री को एक साल तक

सत्य, शौच तप रखना होगा

एक समय ही अन्न खाये तब

बालक शुद्ध स्वभाव का होगा।


ब्राह्मण अपने घर आया और

फल देकर पत्नी से बोला

खा लो इसे, पर स्त्री कुटिल थी

सोच रही, उसका मन डोला।


मन में वो सोचे कि मैं

ना फल खाऊं, ना गर्भ धरूँ मैं

बहुत मुश्किलें होतीं इसमें

प्रसव पीड़ा भी बहुत कठिन है।


कष्ट पालने में बच्चे को

ऐसा सोच, फल न खाया था

पति ने पूछा, खा लिया फल

हाँ में उसने सिर हिलाया था।


एक दिन उसकी बहन थी आई

सारा वृतांत था उसे सुनाया

उसके ही कहने पर उसने

गाय को वो फल था खिलाया।


बहन कहे एक युक्ति बताऊँ

मैं अभी भी गर्भवती हूँ

जब भी ये बच्चा जन्म ले

इसको तब मैं तुम को दे दूँ।


कह दूंगी मेरा बच्चा मर गया

स्वांग करो कि तम हो गर्भवती

थोड़ा सा धन दे देना उसको

बच्चा तुमको दे जाये मेरा पति।


रहने लगूं मैं तेरे घर पर

बच्चे का करूं मैं लालन पालन

धुन्धुली भी तैयार हो गयी

पापी तो था ही उसका भी मन।


पुत्र पैदा हुआ बहन को

उसने धुन्धुली को दे दिया

आत्मदेव ने सुना, पुत्र हुआ

गरीबों को बहुत सा धन दिया।


ब्राह्मण ने बहुत प्यार से

जात कर्म संस्कार उसका किया

धुन्धुली ने घर बहन को रख लिया

बालक का नाम धुंधकारी रख दिया।


तीन महीने बाद उस गौ के भी

बालक हुआ जो मनुष्याकार था

बहुत सुंदर, भा गया ब्राह्मण को

किया उसका भी सब संस्कार था।


लोग सुनें आएं देखनें

सभी को उसने आश्चर्यचकित किया

ब्राह्मण को भी वो बहुत प्रिय था

नाम उसको गोकर्ण दे दिया।


दोनों पुत्र जवान हो गए

गोकर्ण था पंडित और ज्ञानी

धुंधकारी दुष्ट बड़ा था

क्रोधी, चोर, लम्पट अज्ञानी।


ईर्ष्या उसके स्वाभाव में ही थी

लोगों के घरों में आग लगाता

बच्चों को गोद में लेकर उनको

कुएं में डाल था जाता।


चाण्डालों से विशेष प्रेम उसे

कुत्तों संग शिकार को जाता

वैश्यों के जाल में फंसकर

सम्पति सब उन्हें दे आता।


पिता फूट फूटकर रोने लगे

कहें दुखदाई होता है कुपुत्र

कष्ट देता माता पिता को

इससे तो अच्छा था बिना पुत्र।


तभी वहां गोकर्ण आ गया

वैराग्य का उपदेश दे उनको

कहे सुख न इंद्र को भी

सुख केवल है मुनि विरक्त को।


पुत्र से फिर ज्ञान समझ कर

ब्राह्मण सोचें अब वन को जाएं

वन में जाकर क्या करना है

पूछें, तो गोकर्ण बताएं।


शरीर हाड मांस का पिण्ड है

स्त्री पुत्र को अपना न मानो

सभी कुछ यहाँ क्षणभंगुर है

प्रभु को बस तुम अपना जानो।


भगवन की भक्ति में लगे रहो

सदा साधुजन की सेवा करो

प्रभु कथा का रस पान करो

उनकी भक्ति में सदा रहो।


यह सुन वन में चले ब्राह्मण वो

प्रभु को अपने मन में धार लिया

दशस्कन्ध का पाठ नित्य करें

कृष्ण को फिर था प्रपात कर लिया।


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