STORYMIRROR

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -२६८; पाण्डवों के राजसूय यज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार

श्रीमद्भागवत -२६८; पाण्डवों के राजसूय यज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार

4 mins
356

श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

युधिष्ठिर एक दिन सभा में बैठे थे

कृष्ण को सम्बोधित करते हुए

सबके सामने कहा उन्होंने।


राजसूय यज्ञ के द्वारा आपका

यजन मैं हूँ करना चाहता

इस संकल्प को मेरे अब

कृपा करके आप कीजिए पूरा।


चरणों की सेवा करे जो आपके

छूट जाए संसार के चक्र से

विषयों की अभिलाषा भी जो करें तो

प्राप्ति होती उनकी भी उन्हें।


इन चरणकमलों की सेवा का

चाहता मैं कि प्रभाव देखें सभी

कुरूवंशी, सृंजयवंशी नरपतियों में

भजन करें आपका और जो करते नही।


उनका अन्तर दिखलायिए आप अब 

स्वयं परब्रह्म हैं आप तो

माना भेद भाव किसी प्रकार का

आप किसी से करते नही हो।


फिर भी जो आपकी सेवा करते

भावना अनुसार फल मिलता उनको

कृष्ण कहें’ बहुत ही उत्तम है

यज्ञ का ये निश्चय तुम्हारा जो।


विस्तार होगा कीर्ति का आपकी

राजसूय यज्ञ करने से

शुरू करें तैयारी यज्ञ की

समस्त प्राणियों का अभीष्ट है ये।


महाराज, चारों भाई आपके

इंद्रादि लोकपालों के अंश ये

सबके सब बड़े वीर हैं

मनस्वी, संयमी आप भी बड़े।


सदगुणों से आपके आप लोगों ने

वश में कर लिया मुझे अपने

संसार में कोई देवता या राजा

तिरस्कार ना कर सके भक्त का मेरे ‘।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

ऐसी बात सुनकर भगवान की

युधिष्ठिर का हृदय आनन्द से भर गया

अपने भाइयों को आज्ञा दी।


‘ दिग्विजय करने के लिए जाओ तुम’

और भगवान कृष्ण ने भी उनमें

अपनी शक्ति का संचार कर

प्रभावशाली बना दिया उन्हें।


सहदेव गए दक्षिण दिशा में

नकुल पश्चिम, अर्जुन उत्तर में

भीमसेन पूर्व दिशा में

नरपतियों को जीतने चले गए।


अपने बल पोरुष से उन्होंने

सभी राजाओं को जीतकर

महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ के लिए

बहुत सा धन दिया उन्हें लाकर।


परन्तु जब युधिष्ठिर ने सुना

कि प्राप्त की ना जा सकी

अभी तक विजय जरासन्ध पर

उन्हें तब बहुत चिन्ता हुई।


भगवान ने उन्हें वो उपाय सुनाया

जो उद्धव ने बतलाया था

भीमसेन, अर्जुन, कृष्ण ने फिर

ब्राह्मणों का वेश धर लिया।


जरासन्ध के गिरिव्रज पहुँच गए

जरासन्ध भक्त था ब्राह्मणों का

तीनों ब्राह्मण वेषधारियों ने

जरासन्ध से की थी याचना।


‘ हम तीनों अतिथि आपके

आ रहे हैं बड़ी दूर से

हम आपसे जो कुछ चाहते हैं

आप हमें अवश्य दीजिए।


तितिक्षु पुरुष क्या नहीं सह सकते

बुरा से बुरा कर सकते दुष्ट हैं

उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते

समदर्शी के लिए पराया कौन है ?


राजा हरिशचंद्र, रन्तिदेव

मुदगल, शिबि, बलि, व्याध आदि

बहुतों ने अतिथि को सर्वस्व समझ

प्राप्ति की अविनाशी पद की।


इसलिए राजन, हम लोगों को

निराश मत कीजिए आप भी ‘

परीक्षित, जरासंध ने आवाज़ से

पहचान लिया था उन लोगों को कि।


ये ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं

और उन्हें ये भी लगा

कि मैंने अवश्य ही कहीं

पहले भी इन्हें है देखा।


फिर मन ही मन विचार किया

कि ये क्षत्रिय होने पर भी

मेरे दर पर ब्राह्मण के वेष में

आए हैं भिक्षा लेने ही।


जब भिक्षा लेने पर लोग ये

उतारू ही हो गए हैं तो

जो कुछ भी माँगेंगे मुझसे

मैं वो सब दे दूँगा इनको।


याचना करने पर इनके मैं 

शरीर भी माँगेंगे, दे दूँगा

ब्राह्मण का वेश धर कर विष्णु ने

बलि का सब कुछ छीन लिया था।


फिर भी बलि की पवित्र कीर्ति

सभी और है फैल रही

सारी पृथ्वी का दान कर दिया

सब उसे मालूम था, फिर भी।


यह शरीर तो नाशवान है

यश नही कमाता जो इस शरीर से

और जीना व्यर्थ उस क्षत्रिय का

जिसका जीवन नही ब्राह्मण के लिए।


जरासन्ध की बुद्धि उदार थी

ब्राह्मण वेशधारी कृष्ण आदि को

उसने कहा कि तुम तीनो माँग लो

जो वस्तु चाहिए हो तुमको।


भगवान कृष्ण ने कहा , राजेंद्र

हम क्षत्रिय हैं, ब्राह्मण हम नहीं

आपके पास युद्ध के लिए आए

भिक्षा दीजिए हमें द्वन्द युद्ध की।


ये पाण्डुपुत्र भीमसेन है

और यह अर्जुन है, भाई उसका

तुम्हारा पुराना शत्रु, कृष्ण मैं

ममेरा भाई इन दोनों का।


भगवान ने जब परिचय दिया तो

जरासंध ठठाकर हंसने लगा

और चिढ़कर बोला, मूर्खों

तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार हूँ करता।


परन्तु कृष्ण, तुम तो डरपोक हो

घबरा जाते हो तुम युद्ध से

यहाँ तक कि अपनी नगरी मथुरा

छोड़ी थी तुमने मेरे डर से।


तुम्हारे साथ मैं नही लड़ूँगा और

ये अर्जुन भी कोई योद्धा नही

एक तो अवस्था में मुझसे छोटा

दूसरे नही कोई विशेष बलवान भी।


मेरे जोड़ का वीर नही ये

इसलिए मैं नही लड़ूँगा इससे

भीमसेन ही बस मेरे समान

बलवान हैं और मेरे जोड़ के।


यह कहकर जरासन्ध ने

एक गदा दी भीमसेन को

स्वयं दूसरी गदा को लेकर

नगर के बाहर निकल आया वो।


दोनों वीर भिड़ गए आपस में

गदाओं के वार करने लगे

गदाएँ चकनाचूर होने लगीं

बदन से टकराकर उनके।


वार करें वो तब घूसों से

परीक्षित, दोनों का बल समान था

दोनों में से कोई भी

ना जीता और ना हारा।


मित्र समान रहते रात में

प्रहार करें एक दूजे पर दिन में

अठाईसवें दिन भीमसेन ने

कहा था ये श्री कृष्ण से।


‘ जरासंध को जीत ना सकूँ युद्ध में ‘

जरासंध के बारे में कृष्ण जानते ये

कि बना दो टुकड़ों के जोड़ने से

जानते जन्म मृत्यु का रहस्य उसके।


भीमसेन के शरीर में तब

अपनी शक्ति का संचार किया

एक वृक्ष की डाली ले उन्होंने

बीचोबीच से चीर दिया।


भीमसेन को दिखाया इशारे से

प्रभु का अभिप्राय समझ गए वे

जरासंध को धरती पर पटका

पकड़कर उनके पैरों से।


एक पैर को दबाया पैर से

दूसरे को पकड़ लिया हाथों में

गुदा की और से खींचते हुए फिर

चीर डाला दो टुकड़ों में उसे।


भीमसेन का आलिंगन करके

सत्कार किया उनका कृष्ण ने

जरासंध के पुत्र सहदेव का

राज्यभीषेक तब किया उन्होंने।


जो राजा क़ैद में जरासंध की

मुक्त किया उन्हें कारागार से

भयरहित हो सभी नरपति

भगवान की जय जयकार करें।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics