श्रीमद्भागवत - १२५;वृत्रासुर की वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
श्रीमद्भागवत - १२५;वृत्रासुर की वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
असुर भागें भयभीत होकर
सैनिकों ने ध्यान न दिया
स्वामी के धर्मयुक्त वचनों पर।
असुर सेना छिन्न भिन्न हो रही
वृत्रासुर ने जब देखा ये सब
देवताओं को आगे बढ़ने से
बलपूर्वक रोका उसने तब।
क्रोध के मारे तिलमिला उठा
ललकारते हुए कहा देव सेना से
पीठ दिखा जो असुर भाग रहे
उनपर प्रहार क्यों कर रहे पीछे से।
डरपोक जो युद्धभूमि से भाग रहे
लाभ क्या मारने से उनको
प्रशंशा की ये बात नहीं है
स्वर्ग इससे ना मिलेगा तुमको।
यदि तुम्हारे मन में उत्साह है
और शक्ति है युद्ध करने की
युद्ध का चख लो मजा तुम
डट जाओ मेरे सामने भी।
परीक्षित ! वृत्रासुर बडा बलि था
जब सिंहनाद किया क्रोध में भरकर
उसकी गर्जना से देवता
मूर्छित हो गिर पड़े पृथ्वी पर।
पैरों से कुचले देव सेना को
त्रिशूल लिए वृत्रासुर हाथ में
धरती भी डगमगाने लगी
अपार वेग से वृत्रासुर के।
वज्रपाणि देवराज इंद्र भी
ये देखकर सह ना सके
बहुत बड़ी एक गदा चलाई
अपने उस शत्रु पर उन्होंने।
वृत्रासुर ने गदा पकड़ ली
ऐरावत पर प्रहार किया उसी से ही
ऐरावत पीछे हटा तो इंद्र ने
स्पर्श से व्यथा मिटा दी उसकी।
फिर से रणभूमि में डट गया
जब देखा ये वृत्रासुर ने
भाई विशवरूप का वध करने वाला
खड़ा सामने इंद्र वज्र लिए।
कहने लगा, सौभाग्य मेरे लिए
हत्यारा भाई का खड़ा सामने
भाई के ऋण से उऋण हो जाऊं
मैं अब मार के तुम्हें।
मेरा भाई एक ब्राह्मण था
यज्ञ में दीक्षित, गुरु था तुम्हारा
यज्ञ पशु के जैसे तुमने
उसके तीन सिरों को उतारा।
दया, लज्जा, लक्ष्मी, और कीर्ति
छोड़ चुकीं हैं ये सब तुम्हें
मनुष्य, राक्षस निन्दा करते हैं
तूने ऐसे नीच कर्म किये।
शरीर को छिन्न भिन्न कर दूंगा
मैं अपने त्रिशूल से तेरे
पर यह भी संभव है कि
वज्र से प्राण तुम ले लो मेरे।
मेरा सिर कट जाये तो मैं
कर्मबन्धन से मुक्त हो जाऊं
सत्पुरुषों के लोक में जाकर उनकी
चरण रज का मैं आश्रय पाऊं।
इंद्र तेरा जो ये वज्र है
शक्तिमान है हो रहा ये
भगवान श्री हरि के तेज और
दधीचि ऋषि की तपस्या से।
विष्णु भगवान ने आज्ञा दी है
मुझे मारने के लिए तुम्हे
उनकी आज्ञा का तुम पालन करो
मार डालो मुझे इसी वज्र से।
क्योंकि भगवान श्री हरि जी
होते हैं जिस पक्ष में
उधर ही विजय, लक्ष्मी और
सारे गुण निवास हैं करते।
विषयों के फंदे को काट डाले मेरे
अपने वेग से, तेरा ये वज्र
मुनिजनोचित गति प्राप्त करूंगा
तब मैं ये शरीर त्यागकर।
भगवान को प्रत्यक्ष अनुभव कर
प्रार्थना कर रहे वृत्रासुर
हे प्रभु, मैं शरण आपकी
कृपा कीजिये आप अब मुझपर।
आपके चरणकमलों के आश्रित
सेवकों की सेवा करने का
अगले जन्म में अवसर प्राप्त हो
मैं भी एक सेवक आपका।
आपके मंगलमय गुणों का
स्मरण सदा रहे मेरे मन में
वाणी आप का ही गान करे
शरीर संलग्न आपकी सेवा में।
किसी भी लोक का राज्य
आपको छोड़कर मैं न चाहूँ
आपके चरणों की रज माँगूँ
नहीं चाहता कि मोक्ष पाऊं।
कमलनयन, मैं छटपटा रहा हूँ
आपका दर्शन पाने के लिए
कोई परवाह नहीं, कर्मों के कारण जो
भटकूँ जन्म मरण के चक्र में ।
परंतु मैं जहां जहां भी जाऊँ
जन्म लूँ, जिस जिस योनि में
वहाँ वहाँ भगवान के प्यारे
भक़्तजनों से मैत्री बनी रहे ।
