शोक
शोक
चिड़ियों की चोंच
आज फिर व्यथा सुनाती
आंगन छीनने की कथा सुनाती।
बहुत उत्साह से बनाए थे घौसले
लेकिन दूसरों की आने की दशा सुनाती
जल पर कुछ बचा अधिकार
शहरों की आड़ में दबने की गाथा सुनाती !
क्यों फिर न हम आंगन सजाएं
खुले वातावरण में घोसले बनाएं
दाने चार चिड़ियों को खिलाए।
पर कुछ हम भी न कर सकते हैं
"मां " पर चढ़ा " मॉम "का अधिकार
" बस्ता " के जगह " बैग " का अधिकार
" विदेशी " रिवाजों ने छीना " हिंदी "का अधिकार !
चिड़िया तब खुश हो पाएंगी
जब जंगल हम बचाएंगे
शब्दों भाषाओं में हिंदी को अपनाएंगे
अंग्रेजी को देश से भगाएंगे।
शायद तभी घर आंगन में वह आएंगी
दानों को अपनाएगी
चार बात अपनों से कर पाएंगी
भाषा जो अपनी रह जाएगी !
अधिकार की जंग में
साथ खड़ी रह पाएंगी
घौसले संग हिंदी को बचाएंगी !