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Durga Singh

Abstract

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Durga Singh

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शंखनाद हूँ मैं विजयघोष तेरी

शंखनाद हूँ मैं विजयघोष तेरी

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शंखनाद हूँ मैं विजयघोष तेरी

प्रहरी हूँ मैं, स्वगात भरी

कोमल फूलों की कटीली टहनियां बन

संभालती मैं हर राह को तेरी


सुबह के मातृ वंदन से

संधियाँ की ढलती अर्चना में

गुहार लगाती, सलामत के लिए तेरी

मातृ स्नेह से कभी,


तो कभी पत्नी धर्म से सही

एक स्त्री के रूप में

संवारती चली हर रिश्ते को सही

कटाक्ष की बेरियाँ को तोर


आखिर खरी हुई, बिली बन कर सही

अर्चन के बादल को चीर कर

आ पहुंची बीच समर में तभी

किसी ने प्रतिघात किया वही


किसी ने चिर हरण की ठानी वहीं

उग्र सुलगते ज्वाला को लांघ

भेद आयी चक्रव्यूह भी तेरी

नारीतत्व की है कसम मुझे


यू ही लूटने ना दूंगी आस्तित्व हमारी

ये जो तूने नई नई पहेलियाँ सीखी है अभी

कभी निर्भय को अपने भ्रम जाल में फसाना

तो कभी उसके दामन से खेलना


कभी निरंकुश प्रताड़ना से झकझोर

तो कभी सड़क जाती ल़डकियों को

बेशरम भरी नजरों से निहारना

आजमा के देख तू हथकंडा, सभी


माँ कसम एक बार उतर के देख

मैदान में आमने सामने

फार के रख दूंगी वो सारे ढोंगी चोले तेरी

नारी हूँ मैं कठपुतली नहीं

माँ हूँ मैं ममता की आँचल तेरी


बेटी हूँ मैं गुरूर तेरी

बहन हूँ मैं परछाई तेरी

पत्नी हूँ मैं सारथी तेरी

दोस्त हूँ मैं रहगुज़र तेरी


तो फिर रहने दो ना हमें

हमारे ही हर भाव में ही

फिर क्यूँ गँवाते हो अपने ईमान को। 


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