सहज सा सवाल हो
सहज सा सवाल हो
सहज सा सवाल हो
और सन्नाटा हो
तो गुजरते हुये पल की
तासीर समझी जा सकती है,
सवाल तो रहेगा
क्योंकि ये जीवन से जुड़ा है
हां सन्नटा जरूर टूटना चाहिये
और ये टूटेगा
जिम्मेदारी से
और जम्मेदारियों की भीड़ में
मनुष्य होने की
जिम्मेदारी सबसे अहम है।
क्योंकि हमारी ब्यवस्था
हमारे लिये निष्प्रयोज्य हो सकती है
हमारी गैरजिम्मेदारी की वजह से
लेकिन हम अपने लिये
निष्प्रयोज्य नहीं हो सकते
और ये हम कौन,
एक बहस हो सकती है।
पर हम मनुष्य है
और हमारे अंदर मनुष्यता है
ये एक सहज सा सच है
और सहज से सवाल के विपरीत
ये सन्नटा टूटने का शुभारंभ है।