शहर
शहर


बड़ी महफूज़ हूँ तेरी इस आँचल में,
कभी सीने से भी लगा लिया कर,
और फिरता हुँ मै दर-बदर बेचैनी में,
कभी तो सुकून के दो पल भी दिखाया कर,
ये वक्त यूं ही निकल जाएगा,
मगर चुभन दिल की ना जायेगी,
महफ़ूज़ हो कर भी क्या फ़ायदा ,
जब सुकून की नींद ना आएगी,
और लाख ख्वाहिशें बुन लू तेरी महफ़िल में,
मगर वो प्यार कहाँ से लाएगी,
और जो अपना हुआ करते थे मेरे गाँव में,
वो संसार कैसे बसायेगी,
सवाल तो लाख है मुझमें,
ऐ शहर कभी जवाब भी दिया कर,
और फिरता हुँ मै दर-बदर बेचैनी में,
कभी तो सुकून के दो पल भी दिखाया कर।