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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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शायद मैं

शायद मैं

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शायद मैं डरपोक नहीं हूँ

लेकिन मैं डरता हूँ

और बहुत डरता हूँ.

मैं इसलिए नहीं डरता कि मैं डरपोक हूँ

मैं इसलिए डरता हूँ की डर है

डर है तो तो डरना चाहिए.

मैं डर को मार नहीं सकता

कोई भी डर को नहीं मार सकता

डर को रहना भी चाहिए

शायद जैसा है उससे भिन्न रूप में.

मैं डरते हुए ही डर को देखता हूँ

इसलिये देखता हूँ कि उससे दूर रहा जा सके

उसे भगाया जा सके

उससे मुक्त हुआ जा सके.


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