सच
सच
रूह थी, गुम गई,
सांस थी, थम गई,
जिस्म यही ठहर गया,
देखो ये पहर गया।
जो साथ था,मेहबूब था,
जो दूर था, मगरूर था,
उस काफिले में लोग थे ,
फिर ताबूत में बसर हुआ।
ख़ामोश थी शाम वो,
रो रहा शज़र था,
आंगन बड़ी वीरान थी,
ये तो तेरा घर था।
जमघट लगा था फिर वही,
तू मिला ना फिर कहीं,
तू नहीं तेरी यादें ही सही
सब यही कहते फिरे।
मौत तो सबकी माशूका,
ज़िन्दगी धोखा दे गई।
तेरहवीं के दिन तेरा,
आख़िरी यहां काम था।
देख आज कुछ साल हुए,
तुझे भुला तेरा संतान था।
आवाज़ जो पहचान थी,
वो भी देख अंजान हुई।
सब तो जी रहे ही हैं,
वक़्त नहीं ठहर गया।

