"पेड़ की पीड़ा से अनभिज्ञ"
"पेड़ की पीड़ा से अनभिज्ञ"
हर रोज की तरह जब मैं
आज सुबह सवेरे उठा
मुझे थोड़ा अजीब लग रहा था
क्यूंकि मेरे सम्मुख एक पेड़ गिरा
हुआ था।
सबलोग पेड़ की पीड़ा से
अनभिज्ञ थे,
क्यों नहीं कोई उस आंधी को
दोषी ठहराता?
क्यों नहीं उसको कोई सहारा देता।
उस पेड़ को देखकर यूं लग रहा था
मानो कुछ क्षणों के वह कह रहा हो
हे मनुष्य! मुझे फिर से उठा दो
मुझे फिर से सहारा दे दो
परन्तु सब लोग पेड़ की पीड़ा से
अनभिज्ञ थे।
उसी पेड़ की सेवा में हम पीछे रहते हैं
जिस पेड़ की वजह से हम जीवित रहते हैं।
कितना अंधा है वो लोग जो काट रहे हैं पेड़
उसे नहीं पता मनुष्य का अस्तित्व है पेड़।
पेड़ हीं एकमात्र है ऐसा जो
निः स्वार्थ सबको सबकुछ देता है,
परन्तु सब लोग पेड़ की पीड़ा से
अनभिज्ञ हैं।