आडंबर
आडंबर
अंदर था एक टूटा हुआ इंसान
और टूटा हुआ घर,
बाहर एक बेशर्म सा मकां था
खड़ा और उसका आडंबर।
जाने कैसी थी ये डगर,
छूटे अपने पीछे,
लगाई अपनों पे ही नज़र,
जो छूट ना पाया था उससे,
वो था उसका आडंबर।
आगाज़ बड़ा अच्छा था,
थी वफा उसके अंदर,
आगोश में उसकी खुशियां थी,
जब तक था वो उसी आगाज़ के
अंज़ाम की राह पर।
फिर वक़्त का चक्र घुमा,
उसने घमंड को चूमा,
आजमाइश अपनों की करी,
हुए जलील घर का हर इंसान,
उसी घर के अंदर,
अंदर था एक टूटा हुआ इंसान
और टूटा हुआ घर।
बाहर एक बेशर्म सा मकां था
खड़ा और उसका आडंबर।
